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अष्टपाहुड
व्याधिजरामरणवेदनादाहविमुक्ता: शिवा: भवन्ति ।।१२५।। अर्थ – भव्यजीव ज्ञानमयी निर्मल शीतल जल को सम्यक्त्वभाव सहित पीकर और व्याधिरूप जरा-मरण की वेदना (पीड़ा) को भस्म करके मुक्त अर्थात् संसार से रहित 'शिव' अर्थात् परमानन्द सुखरूप होते हैं।
भावार्थ - जैसे निर्मल और शीतल जल के पीने से पित्त की दाहरूप व्याधि मिटकर साता होती है वैसे ही यह ज्ञान है वह जब रागादिक मल से रहित निर्मल और आकुलता रहित शांतभावरूप होता है, उसकी भावना करके रुचि, श्रद्धा, प्रतीति से पीवे, इससे तन्मय हो तो जरा-मरणरूप दाह-वेदना मिट जाती है और संसार से निर्वत्त होकर सुखरूप होता है, इसलिए भव्यजीवों को यह उपदेश है कि ज्ञान में लीन होओ।।१२५।।
आगे कहते हैं कि इस ध्यानरूप अग्नि से संसार के बीज आठों कर्म एकबार दग्ध हो जाने पर पीछे फिर संसार नहीं होता है, यह बीज भावमुनि के दग्ध हो जाता है -
जह बीयम्मि य दड्ढे ण विरोहइ अंकुरो य महिवीढे। तह कम्मबीयदड्ढे भवंकुरो भावसवणाणं ।।१२६।।
यथा बीजे च दग्धे नापिरोहति अंकुरश्च महीपीठे।
तथा कर्मबीजदग्धे भवांकुरः भावश्रमणानाम् ।।१२६।। अर्थ - जैसे पृथ्वी तल पर बीज के जल जाने पर उसका अंकुर फिर नहीं उगता है, वैसे ही भावलिंगी श्रमण के संसार का कर्मरूपी बीज दग्ध होता है, इसलिए संसाररूप अंकुर फिर नहीं होता है।
भावार्थ - संसार के बीज 'ज्ञानावरणादि' कर्म हैं। ये कर्म भावश्रमण के ध्यानरूप अग्नि से भस्म हो जाते हैं, इसलिए फिर संसाररूप अंकुर किससे हो? इसलिए भावश्रमण होकर धर्मशुक्लध्यान से कर्मों का नाश करना योग्य है, यह उपदेश है। कोई सर्वथा एकांती अन्यथा कहे कि कर्म अनादि है, उसका अंत भी नहीं है, उसका भी यह निषेध है। बीज अनादि है, वह एक बार दग्ध हो जाने पर पीछे फिर नहीं उगता है, उसी तरह इसे जानना ।।१२६।।
भाव से जो हैं श्रमण जिनवर कहें संक्षेप में । सब अभ्युदय के साथ ही वे तीर्थकर गणधर बनें ।।१२८ ।। जो ज्ञान-दर्शन-चरण से हैं शुद्ध माया रहित हैं। रे धन्य हैं वे भावलिंगी संत उनको नमन है ।।१२९।।