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अष्टपाहुड आगे आचार्य कहते हैं कि जो भावश्रमण हैं, उनको धन्य है, उनको हमारा नमस्कार हो -
ते धण्णा ताण णमो दसणवरणाणचरणसुद्धाणं । भावसहियाण णिच्चं तिविहेण पणट्ठमायाणं ।।१२९।। ते धन्या: तेभ्य: नम: दर्शनवरज्ञानचरणशुद्धेभ्यः ।
भावसहितेभ्यः नित्यं त्रिविधेन प्रणष्टमायेभ्यः ।।१२९।। अर्थ – आचार्य कहते हैं कि जो मुनि सम्यग्दर्शन श्रेष्ठ (विशिष्ट) ज्ञान और निर्दोष चारित्र इनसे शुद्ध है इसीलिए भाव सहित हैं और प्रणष्ट हो गई है माया अर्थात् कपट परिणाम जिनके, ऐसे वे धन्य हैं। उनके लिए हमारा मन-वचन-काय से सदा नमस्कार हो।
भावार्थ - भावलिंगियों में जो दर्शन-ज्ञान-चारित्र से शुद्ध है, उनके प्रति आचार्य की भक्ति उत्पन्न हुई है इसलिए उनको धन्य कह कर नमस्कार किया है वह युक्त है, जिनके मोक्षमार्ग में अनुराग है, उनमें मोक्षमार्ग की प्रवृत्ति में प्रधानता दीखती है, उनको नमस्कार करें ही करें ।।१२९।। आगे कहते हैं कि जो भावभ्रमण हैं, वे देवादिक की ऋद्धि देखकर मोह को प्राप्त नहीं होते हैं
इड्ढिमतुलं विउव्विय किण्णरकिंपुरिसअमरखयरेहि। तेहिं वि ण जाइ मोहं जिणभावणभाविओ धीरो ।।१३०।। ऋद्धिमतुलां विकुर्वद्भिः किंनरकिंपुरुषामरखचरैः ।
तैरपि न याति मोहं जिनभावनाभावित: धीरः ।।१३०।। अर्थ – जिनभावना (सम्यक्त्व भावना) से वासित जीव किंनर, किंपुरुष, देव, कल्पवासी देव और विद्याधर इनसे विक्रियारूप विस्तार की गई अतुल ऋद्धियों से मोह को प्राप्त नहीं होता है, क्योंकि सम्यग्दृष्टि जीव कैसा है ? धीर है, दृढ़बुद्धि है अर्थात् निःशंकित अंग का धारक है। ___ भावार्थ - जिसके जिनसम्यक्त्व दृढ़ है उसके संसार की ऋद्धि तृणवत् है, उनके तो परमार्थसुख की भावना है, विनाशीक ऋद्धि की वांछा क्यों हो ? ।।१३०।।
-आमे इस ही का समर्थन है कि ऐसी-ऋद्धि भी नहीं चाहता है तो अन्य सांसारिक सुख की १. मुद्रित संस्कृत प्रति में 'महासत्त' ऐसा संबोधन पद किया है, जिसको सं. छाया 'महासत्त्व' है। २. मु. सं. प्रति में 'षट्जीवषडायतनानां' एक पद किया है।
करले भला तबतलक जबतक वृद्धपन आवे नहीं। अरे देह में न रोग हो बल इन्द्रियों का ना घटे ।।१३२।। छह काय की रक्षा करो षट् अनायतन को त्यागकर। और मन-वच-काय से तू ध्या सदा निज आतमा ।।१३३।।