________________
भावपाहुड
२०१ 'अजीव-तत्त्व' सो सामान्य अचेतन जड़ है, यह पाँच भेदरूप पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश
और काल इनका विचार करना । पीछे भावना करना कि ये हैं; वह मैं नहीं हूँ। ___ तीसरा ‘आस्रवतत्त्व' है वह जीव-पुद्गल के संयोग जनित भाव हैं, इनमें अनादि कर्मसम्बन्ध से जीव के भाव (भाव आस्रव) तो राग-द्वेष-मोह हैं और अजीव पुद्गल के भावकर्म के उदयरूप मिथ्यात्व, अविरत, कषाय और योग द्रव्यास्रव हैं । इनकी भावना करना कि ये (असद्भूत व्यवहारनय अपेक्षा) मुझे होते हैं (अशुद्ध निश्चयनय से) राग-द्वेष-मोह भाव मेरे हैं, इनसे कर्मों
का बंध होता है, उससे संसार होता है, इसलिए इनका कर्ता न होना (स्व में अपने ज्ञाता रहना ।) ___ चौथा ‘बंधतत्त्व' है वह मैं रागद्वेषमोहरूप परिणमन करता हूँ, वह तो मेरी चेतना का विभाव है, इससे जो कर्म बंधते हैं, वे कर्म पुद्गल हैं, कर्म पुद्गल ज्ञानावरण आदि आठ प्रकार होकर बंधता है, वे स्वभाव-प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेशरूप चार प्रकार होकर बँधते हैं, वे मेरे विभाव तथा पुद्गल कर्म सब हेय हैं, संसार के कारण हैं, मुझे राग-द्वेष-मोहरूप नहीं होना है, इसप्रकार भावना करना।
पाँचवाँ संवरतत्त्व' है वह राग-द्वेष-मोहरूप जीव के विभाव हैं, उनका न होना और दर्शनज्ञानरूप चेतनाभाव स्थिर होना, यह संवर' है, वह अपना भाव है और इसी से पुद्गलकर्मजनित भ्रमण मिटता है।
इसप्रकार इन पाँच तत्त्वों की भावना करने में आत्मतत्त्व की भावना प्रधान है, उससे कर्म की निर्जरा होकर मोक्ष होता है। आत्मा का भाव अनुक्रम से शुद्ध होना यह तो 'निर्जरा तत्त्व' हुआ
और कर्मों का अभाव होना यह 'मोक्षतत्त्व' हआ। इसप्रकार सात तत्त्वों की भावना करना। इसलिए आत्मतत्त्व का विशेषण किया कि आत्मतत्त्व कैसा है - धर्म, अर्थ, काम - इस त्रिवर्ग का अभाव करता है। इसकी भावना से त्रिवर्ग से भिन्न चौथा पुरुषार्थ 'मोक्ष' है, वह होता है।
यह आत्मा ज्ञान-दर्शनमयी चेतनास्वरूप अनादिनिधन है, इसका आदि भी नहीं और निधन (नाश) भी नहीं है। 'भावना नाम बारबार अभ्यास करना; चिन्तन करने का है वह मन-वचनकाय से आप करना तथा दूसरे को कराना और करनेवाले को भला जानना - ऐसे त्रिकरण शुद्ध करके भावना करना । माया-मिथ्या-निदान शल्य नहीं रखना, ख्याति, लाभ, पूजा का आशय
भावों निरन्तर बिना इसके चिन्तवन अर ध्यान के। जरा-मरण से रहित सुखमय मुक्ति की प्राप्ति नहीं ।।११५।।