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बाहिरसयणत्तावणतरुमूलाईणि उत्तरगुणाणि । पालहि भावविशुद्धो पूयालाहं ण ईहंतो । । ११३ ।। बहि:शयनातापनतरुमूलादीन् उत्तरगुणान् ।
पालय भावविशुद्धः पूजालाभं न ईहमान: । ।११३।।
अष्टपाहुड
अर्थ - हे मुनिवर ! तू भाव से विशुद्ध होकर पूजालाभादिक को नहीं चाहते हुए बाह्यशयन, आतापन, वृक्षमूलयोग धारण करना इत्यादि उत्तरगुणों का पालन कर ।
भावार्थ - शीतकाल में बाहर खुले मैदान में सोना-बैठना, ग्रीष्मकाल में पर्वत के शिखर पर सूर्यसन्मुख आतापनयोग धरना, वर्षाकाल में वृक्ष के नीचे योग धरना जहाँ बूँदे वृक्ष पर गिरने के बाद एकत्र होकर शरीर पर गिरें। इसमें कुछ प्रासुक का भी संकल्प है और बाधा बहुत है आदि लेकर यह उत्तरगुण हैं, इनका पालन भी भाव शुद्ध करके करना । भावशुद्धि बिना करे तो तत्काल बिगड़े और फल कुछ नहीं है, इसलिए भाव शुद्ध करके करने का उपदेश है। ऐसा न जानना कि इसको बाह्य में करने का निषेध करते हैं । इनको भी करना और भाव भी शुद्ध करना यह आशय है। केवल पूजालाभादि के लिए अपना बड़प्पन दिखाने के लिए करे तो कुछ फल (लाभ) की प्राप्ति नहीं है ।। ११३ ।।
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आगे तत्त्व की भावना करने का उपदेश करते हैं -
भावहि पढमं तच्चं बिदियं तदियं चउत्थ पंचमयं ।
तियरणसुद्धो अप्पं अणाइणिहणं तिवग्गहरं । । ११४ । ।
भावय प्रथमं तत्त्वं द्वितीयं तृतीयं चतुर्थं पंचमकम् । त्रिकरणशुद्धः आत्मानं अनादिनिधनं त्रिवर्गहरम् । । ११४।।
कर,
अर्थ - हे मुने ! तू प्रथम तो जीवतत्त्व का चिन्तन कर, द्वितीय अजीवतत्त्व का चिन्तन तृतीय आस्रव तत्त्व का चिंतन कर, चतुर्थ बन्धतत्त्व का चिन्तन, पंचम संवरतत्त्व का चिन्तन कर और त्रिकरण अर्थात् मन वचन काय, कृत कारित अनुमोदना से शुद्ध होकर आत्मस्वरूप का चिन्तन कर जो आत्मा अनादिनिधन है और त्रिवर्ग अर्थात् धर्म, अर्थ तथा काम इनको हरनेवाला है।
भावार्थ - प्रथम 'जीवतत्त्व' की भावना तो 'सामान्य जीव' दर्शन - ज्ञानमयी चेतना स्वरूप है, उसकी भावना करना। पीछे ऐसा मैं हूँ - इसप्रकार आत्मतत्त्व की भावना करना। दूसरा