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भावपाहुड
१९९ आचरण नहीं है, उनके बाह्यलिंग कुछ कार्यकारी नहीं है, कारण पाकर तत्काल बिगड़ जाते हैं, इसलिए यह उपदेश है, पहले भाव की शुद्धता करके द्रव्यलिंग धारण करो।
यह द्रव्यलिंग चार प्रकार का कहा है, उसकी सूचना इसप्रकार है - १. मस्तक के, २. डाढी के, ३. मूछों के केशों का लोंच करना तीन चिह्न तो ये और ४. नीचे के केश रखना अथवा १. वस्त्र का त्याग, २. केशों का लोंच करना, ३. शरीर का स्नानादि से संस्कार न करना, ४. प्रतिलेखन मयूरपिच्छिका रखना, ऐसे भी चार प्रकार का बाह्य लिंग कहा है। ऐसे सब बाह्य वस्त्रादिक से रहित नग्न रहना, ऐसा नग्नरूप भावविशुद्धि बिना हँसी का स्थान है और कुछ उत्तम फल भी नहीं है ।।१११।। __ आगे कहते हैं कि भाव बिगड़ने के कारण चार संज्ञा हैं, उनसे संसार भ्रमण होता है, यह दिखाते हैं -
आहारभयपरिग्गहमेहुणसण्णाहि मोहिओ सि तुमं । भमिओ संसारवणे अणाइकालं अणप्पवसो।।११२।। आहारभयपरिग्रहमैथुनसंज्ञाभि: मोहित: असि त्वम्।
भ्रमित: संसारवने अनादिकालं अनात्मवशः ।।११२।। अर्थ – हे मुने ! तूने आहार, भय, मैथुन, परिग्रह इन चार संज्ञाओं से मोहित होकर अनादिकाल से पराधीन होकर संसाररूप वन में भ्रमण किया।
भावार्थ - ‘संज्ञा' नाम वांछा के जागते रहने (अर्थात् बने रहने) का है सो आहार की वांछा होना, भय होना, मैथुन की वांछा होना और परिग्रह की वांछा प्राणी के निरन्तर बनी रहती है, यह जन्मान्तर में चली जाती है, जन्म लेते ही तत्काल प्रगट होती है। इसी के निमित्त से कर्मों का बंध कर संसारवन में भ्रमण करता है, इसलिए मुनियों का यह उपदेश है कि अब इन संज्ञाओं का अभाव करो ।।११२।।
आगे कहते हैं कि बाह्य उत्तरगुण की प्रवृत्ति भी भाव शुद्ध करके करना -
भावशुद्धिपूर्वक पूजादि लाभ न चाहकर । निज शक्ति से धारण करो आतपन आदि योग को।।११३।। प्रथम द्वितीय तृतीय एवं चतुर्थ पंचम तत्त्व की। आद्यन्तरहित त्रिवर्ग हर निज आत्मा की भावना ।।११४।।