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उत्तमबोधिनिमित्तं असारसाराणि ज्ञात्वा । । ११० ।।
अर्थ - हे मुने ! तू संसार को असार जानकर उत्तमबोधि अर्थात् सम्यग्दर्शन - ज्ञान - चारित्र की प्राप्ति के निमित्त अविकार अर्थात् अतिचाररहित निर्मल सम्यग्दर्शन सहित होकर दीक्षाकाल आदिक की भावना कर ।
अष्टपाहुड
भावार्थ - दीक्षा लेते हैं तब संसार (शरीर) भोग को (विशेषतया ) असार जानकर अत्यन्त वैराग्य उत्पन्न होता है वैसे ही उसके आदिशब्द से रोगोत्पत्ति, मरणकालादिक जानना । उस समय में जैसे भाव हों वैसे ही संसार को असार जानकर विशुद्ध सम्यग्दर्शन सहित होकर उत्तम बोधि जिससे केवलज्ञान उत्पन्न होता है उसके लिए दीक्षाकालादिक की निरन्तर भावना करना योग्य है, ऐसा उपदेश है ।।११० ।।
[निरन्तर स्मरण में रखना क्या ? सम्यग्दर्शन - ज्ञान - चारित्र की वृद्धि हेतु हे मुनि ! दीक्षा के समय की अपूर्व उत्साहमय तीव्र विरक्त दशा को; किसी रोगोत्पत्ति के समय की उग्र ज्ञानवैराग्य, संपत्ति को, किसी दुःख के अवसर पर प्रगट हुई उदासीनता की भावना को किसी उपदेश तथा तत्त्वनिर्णय के धन्य अवसर पर जगी पवित्र अंतः भावना को स्मरण में रखना, निरन्तर स्वसन्मुख ज्ञातापन का धीरज अर्थ स्मरण रखना, भूलना नहीं । ( इस गाथा का विशेष भावार्थ)]
आगे भावलिंग शुद्ध करके द्रव्यलिंग सेवन का उपदेश करते हैं
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सेवहि चउविहलिंगं अब्भंतरलिंगसुद्धिमावण्णो । बाहिरलिंगमकज्जं होइ फुडं भावरहियाणं ।। १११ ।। सेवस्व चतुर्विधलिंगं अभ्यंतरलिंगशुद्धिमापन्नः । बाह्यलिंगमकार्यं भवति स्फुटं भावरहितानाम् । । १११ ।।
अर्थ – हे मुनिवर ! तू अभ्यन्तरलिंग की शुद्धि अर्थात् शुद्धता को प्राप्त होकर चार प्रकार के
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बाह्यलिंग का सेवन कर, क्योंकि जो भावरहित होते हैं उनके प्रगटपने बाह्यलिंग अकार्य है
अर्थात् कार्यकारी नहीं है ।
भावार्थ - जो भाव की शुद्धता से रहित हैं, जिनके अपनी आत्मा का यथार्थ श्रद्धान, ज्ञान,
आहार भय मैथुन परीग्रह चार संज्ञा धारकर ।
भ्रमा भववन में अनादिकाल से हो अन्य वश ।। ११२ ।।