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भावपाहुड
१९७ अर्थ - जो मुनिप्रवर (मुनियों में श्रेष्ठ प्रधान) क्रोध के अभावरूप क्षमा से मंडित है, वह मुनि समस्त पापों का क्षय करता है और विद्याधर देव मनुष्यों द्वारा प्रशंसा करने योग्य निश्चय से होता है।
भावार्थ - क्षमा गुण बड़ा प्रधान है, इससे सबके स्तुति करने योग्य पुरुष होता है । जो मुनि हैं, उनके उत्तम क्षमा होती है, वे तो सब मनुष्य देव विद्याधरों के स्तुतियोग्य होते ही हैं, और उनके सब पापों का क्षय होता ही है, इसलिए क्षमा करना योग्य है - ऐसा उपदेश है। क्रोधी सबके निंदा करने योग्य होता है, इसलिए क्रोध का छोड़ना श्रेष्ठ है ।।१०८।। आगे ऐसे क्षमागुण को जानकर क्षमा करना और क्रोध छोड़ना ऐसा कहते हैं -
इयणाऊण खमागुण खमेहि तिविहेण सयल जीवाणं। चिरसंचियकोहसिहिं वरखमसलिलेण सिंचेह ।।१०९।। इति ज्ञात्वा क्षमागुण! क्षमस्व त्रिविधेन सकलजीवान्।
चिरसंचितक्रोधशिखिनं वरक्षमासलिलेन सिंच ।।१०९।। अर्थ – हे क्षमागुण मुने ! (जिसके क्षमागुण है ऐसे मुनि का संबोधन है) इति अर्थात् पूर्वोक्त प्रकार क्षमागुण को जान और सब जीवों को पर मन वचन काय से क्षमा कर तथा बहुत काल से संचित क्रोधरूपी अग्नि को क्षमारूप जल से सींच अर्थात् शमन कर।
भावार्थ - क्रोधरूपी अग्नि पुरुष के भले, गुणों को दग्ध करनेवाली है और परजीवों का घात करनेवाली है इसलिए इसको क्षमारूप जल से बुझाना, अन्य प्रकार यह बुझती नहीं है और क्षमा गुण सब गुणों में प्रधान है। इसलिए यह उपदेश है कि क्रोध को छोड़कर क्षमा ग्रहण करना ।।१०९।। आगे दीक्षाकालादिक की भावना का उपदेश करते हैं -
दिक्खाकालाईयं भावहि अवियारदसणविसुद्धो। उत्तमबोहिणिमित्तं असारसाराणि मुणिऊण ।।११०।।
दीक्षाकालादिकं भावय अविकारदर्शनविशुद्धः ।
असार है संसार सब यह जान उत्तम बोधि की। अविकार मन से भावना भा अरे दीक्षाकाल सम ।।११०।। अंतरंग शुद्धिपूर्वक तू चतुर्विध द्रवलिंग धर। क्योंकि भाव बिना द्रवलिंग कार्यकारी है नहीं।।१११।।