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अष्टपाहुड
अलग सम्प्रदाय बना लिये, ऐसे विपर्यय हुआ।।१०६।। आगे क्षमा का उपदेश करते हैं -
दुजणवयणचडक्कं णिठ्ठरकडुयं सहति सप्पुरिसा। कम्ममलणासणटुं भावेण य णिम्ममा सवणा ।।१०७।।
दुर्जनवचनचपेटां निष्ठुरकटुकं सहन्ते सत्पुरुषाः ।
कर्ममलनाशनार्थं भावेन च निर्ममा: श्रमणाः।।१०७।। अर्थ – सत्पुरुष मुनि हैं, वे दुर्जन के वचनरूप चपेट जो निष्ठुर (कठोर) दया रहित और कटुक (सुनते ही कानों को कड़े शूल समान लगे) ऐसी चपेट है, उसको सहते हैं। वे किसलिए सहते हैं? कर्मों का नाश होने के लिए सहते हैं । पहिले अशुभ कर्म बांधे थे उसके निमित्त से दुर्जन ने कटुक वचन कहे, आपने सुने, उसको उपशम परिणाम से आप सहे तब अशुभकर्म उदय होय खिर गये। ऐसे कटुकवचन सहने से कर्म का नाश होता है।
वे मुनि सत्पुरुष कैसे हैं ? अपने भाव से वचनादिक से निर्ममत्व हैं, वचन से तथा मानकषाय से और देहादिक से ममत्व नहीं है। ममत्व हो तो दुर्वचन सहे न जावें, यह न जानें कि इसने मुझे दुर्वचन कहे, इसलिए ममत्व के अभाव से दुर्वचन सहते हैं। अत: मुनि होकर किसी पर क्रोध नहीं करना यह उपदेश है। लौकिक में भी जो बड़े पुरुष हैं, वे दुर्वचन सुनकर क्रोध नहीं करते हैं, तब मुनि को सहना उचित ही है। जो क्रोध करते हैं, वे कहने के तपस्वी हैं, सच्चे तपस्वी नहीं हैं।।१०७।। आगे क्षमा का फल कहते हैं -
पावंखवइ असेसंखमाए पडिमंडिओ य मुणिपवरो। खेयरअमरणराणं पसंसणीओ धुवं होइ ।।१०८।। पापंक्षिपति अशेषं क्षमया परिमंडित: च मुनिप्रवरः । खेचरामरनराणां प्रशंसनीयः ध्रुवं भवति ।।१०८।।
अर क्षमा मंडित मुनि प्रकट ही पाप सब खण्डित करें। सुरपति उरग-नरनाथ उनके चरण में वंदन करें।।१०८ ।। यह जानकर हे क्षमागुणमुनि! मन-वचन अर काय से । सबको क्षमा कर बुझा दो क्रोधादि क्षमास्वभाव से ।।१०९।।