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भावपाहुड
१९५ करो यह उपदेश है और जो विनय बिना जिनमार्ग से भ्रष्ट भये, वस्त्रादिकसहित जो मोक्षमार्ग मानने लगे उनका निषेध है ।।१०४।। आगे भक्तिरूप वैयावृत्त्य का उपदेश करते हैं -
णियसत्तीए महाजस भत्तीराएण णिच्चकालम्मि। तं कुण जिणभत्तिपरं विजावच्चं दसवियप्पं ।।१०५।। निजशक्त्या महायशः ! भक्तिरागेण नित्यकाले ।
त्वं कुरु जिनभक्तिपरं वैयावृत्यं दशविकल्पम् ।।१०५।। अर्थ – हे महायश ! हे मुने ! जिनभक्ति में तत्पर होकर भक्ति के रागपूर्वक उस दस भेदरूप वैयावृत्त्य को सदाकाल तू अपनी शक्ति के अनुसार कर । 'वैयावृत्त्य' के दूसरे दुःख (कष्ट) आने पर उसकी सेवा चाकरी करने को कहते हैं। इसके दस भेद हैं - १. आचार्य, २. उपाध्याय, ३. तपस्वी, ४. शैक्ष्य, ५. ग्लान, ६. गण, ७. कुल, ८. संघ, ९. साधु, १०. मनोज्ञ, ये दस भेद मुनि के हैं। इनका वैयावृत्त्य करते हैं, इसलिए दस भेद कहे हैं ।।१०५।। आगे अपने दोष को गुरु के पास कहना, ऐसी गर्दा का उपदेश करते हैं -
जं किंचि कयं दोसं मणवयकाएहिं असुहभावेण । तं गरहि गुरुसयासे गारव मायं च मोत्तूण ।।१०६।। य: कश्चित् कृत: दोष: मनोवच: कायैः अशुभभावेन ।
तं गहँ गुरुसकाशे गारवं मायां च मुक्त्वा ।।१०६ ।। अर्थ – हे मुने ! जो कुछ मन वचन काय के द्वारा अशुभ भावों से प्रतिज्ञा में दोष लगा हो उसको गुरु के पास अपना गौरव (महंतपने का गर्व) छोड़कर और माया (कपट) छोड़कर मन वचन काय को सरल करके, गर्दा कर अर्थात् वचन द्वारा प्रकाशित कर । ____ भावार्थ - अपने को कोई दोष लगा हो और निष्कपट होकर गुरु को कहे तो वह दोष निवृत्त हो जावे। यदि आप शल्यवान् रहे तो मुनिपद में यह बड़ा दोष है, इसलिए अपना दोष छिपाना नहीं. जैसा हो वैसा सरलबद्धि से गरुओं के पास कहे तब दोष मिटे, यह उपदेश है। काल के निमित्त से मुनिपद से भ्रष्ट हुए, पीछे गुरुओं के पास प्रायश्चित्त नहीं लिया, तब विपरीत होकर
निष्ठुर कटुक दुर्जन वचन सत्पुरुष सहें स्वभाव से। सब कर्मनाशन हेतु तुम भी सहो निर्ममभाव से ।।१०७।।