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अष्टपाहुड ___ अर्थ - कंद जमीकंद आदिक, बीज चना आदि अन्नादिक, मूल अदरक मूली गाजर आदिक, पुष्प फूल, पत्र नागरबेल आदिक इनको आदि लेकर जो भी कोई सचित्त वस्तु थी उसे मान (गर्व) करके भक्षण की। उससे हे जीव ! तूने अनंत संसार में भ्रमण किया।
भावार्थ - कन्दमूलादिक सचित्त अनन्तजीवों की काय है तथा अन्य वनस्पति बीजादिक सचित्त हैं इनको भक्षण किया। प्रथम तो मान करके कि हम तपस्वी हैं, हमारे घरबार नहीं है, वन के पुष्प फलादिक खाकर तपस्या करते हैं, ऐसे मिथ्यादृष्टि तपस्वी होकर मान करके खाये तथा गर्व से उद्धत होकर दोष समझा नहीं, स्वच्छंद होकर सर्वभक्षी हुआ। ऐसे इन कंदादिक को खाकर इस जीव ने संसार में भ्रमण किया। अब मुनि होकर इनका भक्षण मत कर, ऐसा उपदेश है। अन्यमत के तपस्वी कंदमूलादिक फल-फूल खाकर अपने को महंत मानते हैं, उनका निषेध है।।१०३।। आगे विनय आदि का उपदेश करते हैं, पहिले विनय का वर्णन है -
विणयं पंचपयारं पालहि मणवयकायजोएण। अविणयणरा सुविहियं तत्तो मुत्तिं न पावंति ।।१०४।। विनय: पंचप्रकारं पालय मनोवचनकाययोगेन ।
अविनतनराः सुविहितां ततो मुक्तिं न प्राप्नुवंति ।।१०४।। अर्थ – हे मुने ! जिस कारण से अविनयी मनुष्य भले प्रकार विहित जो मुक्ति उसको नहीं पाते हैं अर्थात् अभ्युदय तीर्थंकरादि सहित मुक्ति नहीं पाते हैं, इसलिए हम उपदेश करते हैं कि हाथ जोड़ना, चरणों में गिरना, आने पर उठना, सामने जाना और अनुकूल वचन कहना यह पाँच प्रकार का विनय है अथवा ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप और इनके धारक पुरुष इनका विनय करना ऐसे पाँचप्रकार के विनय को त मन वचन काय तीनों योगों से पालन कर।
भावार्थ - विनय बिना मुक्ति नहीं है, इसलिए विनय का उपदेश है। विनय में बड़े गुण हैं, ज्ञान की प्राप्ति होती है, मानकषाय का नाश होता है, शिष्टाचार का पालना है और कलह का निवारण है इत्यादि विनय के गुण जानने । इसलिए जो सम्यग्दर्शनादि से महान् हैं, उनका विनय
निजशक्ति के अनुसार प्रतिदिन भक्तिपूर्वक चाव से। हे महायश! तुम करो वैयावृत्ति दशविध भाव से ।।१०५।। अरे मन वचन काय से यदि हो गया कुछ दोष तो। मान माया त्याग कर गुरु के समक्ष प्रगट करो ।।१०६।।