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अष्टपाहुड
न रखना । इसप्रकार से तत्त्व की भावना करने से भाव शुद्ध होते हैं।
स्त्री आदि पदार्थों के विषय में भेदज्ञानी का विचार इसका उदाहरण इसप्रकार है कि जब स्त्री आदि इन्द्रियगोचर हों (दिखाई दें), तब उनके विषय में तत्त्व विचार करना कि यह स्त्री है वह क्या है ? जीवनामक तत्त्व की एक पर्याय है, इसका शरीर है वह तो पुद्गलतत्त्व की पर्याय है, यह हावभाव चेष्टा करती है, वह इस जीव के विकार हुआ है यह आस्रवतत्त्व है और बाह्य-चेष्टा पुद्गल की है, इस विकार से इस स्त्री की आत्मा के कर्म का बन्ध होता है। यह विकार इसके न हो तो ‘आस्रव' 'बन्ध' इसके न हो। कदाचित् मैं भी इसको देखकर विकाररूप परिणमन करूँ तो मेरे भी ‘आस्रव', 'बन्ध' हो। इसलिए मुझे विकाररूप न होना यह संवरतत्त्व' है। बन सके तो कुछ उपदेश देकर इसका विकार दूर करूँ (ऐसा विकल्प राग है) वह राग भी करने योग्य नहीं है-स्व सन्मुख ज्ञातापने में धैर्य रखना योग्य है, इसप्रकार तत्त्व की भावना से अपना भाव अशुद्ध नहीं होता है, इसलिए जो दृष्टिगोचर पदार्थ हों उनमें इसप्रकार तत्त्व की भावना रखना, यह तत्त्व की भावना का उपदेश है।।११४।। आगे कहते हैं कि ऐसे तत्त्व की भावना जबतक नहीं है तब तक मोक्ष नहीं है -
जाव ण भावइ तच्चं जाव ण चिंतेइ चिंतणीयाई। ताव ण पावइ जीवो जरमरणविवज्जियं ठाणं ।।११५।। यावन्न भावयति तत्त्वं यावन्न चिंतयति चिंतनीयानि ।
तावन्न प्राप्नोति जीव: जरामरणविवर्जितं स्थानम् ।।११५।। अर्थ - हे मुने ! जबतक यह जीवादि तत्त्वों को नहीं भाता है और चिन्तन करने योग्य का चिन्तन नहीं करता है तबतक जरा और मरण से रहित मोक्ष स्थान को नहीं पाता है।
भावार्थ – तत्त्व की भावना तो पहिले कही वह चिन्तन करने योग्य धर्मशुक्लध्यान विषयभूत जो ध्येय वस्तु अपने शुद्ध दर्शनज्ञानमयी चेतनाभाव और ऐसा ही अरहंत सिद्ध परमेष्ठी का स्वरूप उसका चिन्तन जबतक इस आत्मा के न हो तबतक संसार से निवृत्त होना नहीं है, इसलिए तत्त्व की भावना और शुद्धस्वरूप के ध्यान का उपाय निरन्तर रखना - यह उपदेश है ।।११५।।
परिणाम से ही पाप सब अर पुण्य सब परिणाम से। यह जैनशासन में कहा बंधमोक्ष भी परिणाम से ।।११६।। जिनवच परान्मुख जीव यह मिथ्यात्व और कषाय से। ही बांधते हैं करम अशुभ असंयम से योग से ।।११७।।