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भावपाहुड भ्रमण करता है; इसलिए यह उपदेश है कि दस प्रकार के अब्रह्म को छोड़कर नव प्रकार के ब्रह्मचर्य को अंगीकार करो।
दस प्रकार के अब्रह्म ये हैं। १. पहिले तो स्त्री का चिन्तन होना, २. पीछे देखने की चिंता होना, ३. पीछे निश्वास डालना, ४. पीछे ज्वर होना, ५. पीछे दाह होना, ६. पीछे काम की रुचि होना, ७. पीछे मूर्छा होना, ८. पीछे उन्माद होना, ९. पीछे जीने का संदेह होना, १०. पीछे मरण होना, ऐसे दस प्रकार का अब्रह्म है।
नव प्रकार का ब्रह्मचर्य इसप्रकार है - नव कारणों से ब्रह्मचर्य बिगड़ता है, उनके नाम ये हैं - १. स्त्री को सेवन करने की अभिलाषा, २. स्त्री के अंग का स्पर्शन, ३. पुष्ट रस का सेवन, ४. स्त्री से संसक्त वस्तु शय्या आदिक का सेवन, ५. स्त्री के मुख, नेत्र आदि को देखना, ६. स्त्री का सत्कार पुरस्कार करना, ७. पहिले किये हुए स्त्रीसेवन को याद करना, ८. आगामी स्त्रीसेवन की अभिलाषा करना, ९. मनोवांछित इष्ट विषयों का सेवन करना - ऐसे नव प्रकार हैं। इनका त्याग करना सो नवभेदरूप ब्रह्मचर्य है अथवा मन-वचन-काय, कृत-कारित-अनुमोदना से ब्रह्मचर्य का पालन करना ऐसे भी नव प्रकार हैं। ऐसे करना सो भी भाव शुद्ध होने का उपाय है ।।९८।। __ आगे कहते हैं कि जो भाव सहित मुनि है सो आराधना के चतुष्क को पाता है, भाव बिना वह भी संसार में भ्रमण करता है -
भावसहिदो य मुणिणो पावइ आराहणाचउक्कं च । भावरहिदो य मुणिवर भमइ चिरं दीहसंसारे ।।९९।। भावसहितश्च मुनिन: प्राप्नोति आराधनाचतुष्कं च ।
भावरहितश्च मुनिवर! भ्रमति चिरं दीर्घसंसारे ।।९९।। अर्थ – हे मुनिवर ! जो भावसहित है सो दर्शन-ज्ञान-चारित्र-तप ऐसी आराधना के चतुष्क को पाता है, वह मुनियों में प्रधान है और जो भावरहित मुनि है सो बहुत काल तक दीर्घ संसार में भ्रमण करता है।
भावार्थ - निश्चय सम्यक्त्व का शुद्ध आत्मा का अनुभूतिरूप श्रद्धान है सो भाव है, ऐसे
तिर्यंच मनुज कुदेव होकर द्रव्यलिंगी दुःख लहें। पर भावलिंगी सुखी हों आनन्दमय अपवर्ग में ।।१००।। अशुद्धभावों से छियालिस दोष दूषित असन कर। तिर्यंचगति में दुख अनेकों बार भोगे विवश हो।।१०१।।