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अष्टपाहुड
भावसहित हो उसके चार आराधना होती है उसका फल अरहन्त सिद्ध पद है और ऐसे भाव से रहित हो उसके आराधना नहीं होती है उसका फल संसार का भ्रमण है। ऐसा जानकर भाव शुद्ध करना यह उपदेश है ।। ९९ ।।
आगे भाव ही के फल को विशेषरूप से कहते हैं -
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पावंति भावसवणा कल्लाणपरंपराई सोक्खाई । दुखाइं दव्वसवणा णरतिरियकुदेवजोणीए । । १०० ।। प्राप्नुवंति भावश्रमणाः कल्याणपरंपरा: सौख्यानि । दुःखानि द्रव्यश्रमणा: नरतिर्यक्कुदेवयोनौ । । १०० ।।
अर्थ – जो भावश्रमण हैं, भावमुनि हैं, वे जिसमें कल्याण की परम्परा है - ऐसे सुखों को पाते
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हैं और जो द्रव्यश्रमण हैं वे तिर्यंच मनुष्य कुदेव योनि में दुःखों को पाते हैं।
भावार्थ - भावमुनि सम्यग्दर्शन सहित हैं वे तो सोलहकारण भावना भाकर गर्भ, जन्म, तप, ज्ञान, निर्वाण, पंच कल्याणक सहित तीर्थंकर पद पाकर मोक्ष पाते हैं और जो सम्यग्दर्शन रहित द्रव्यमुनि हैं वे तिर्यंच, मनुष्य, कुदेव योनि पाते हैं । यह भाव के विशेष से फल का विशेष है।।१००।।
आगे कहते हैं कि अशुद्ध भाव से अशुद्ध ही आहार किया, इसलिए दुर्गति ही पाई - छायालदोसदूसियमसणं गसिउं असुद्धभावेण ।
पत्तो सि महावसणं तिरियगईए अणप्पवसो । । १०१ ।।
षट्चत्वारिंशद्दोषदूषितमशनं ग्रसितं अशुद्धभावेन ।
प्राप्तः असि महाव्यसनं तिर्यग्गतौ अनात्मवशः ।। १०१ ।।
अर्थ - हे मुने ! तूने अशुद्धभाव से छियालीस दोषों से दूषित अशुद्ध अशन (आहार) ग्रस्या (खाया) इसकारण से तिर्यंचगति में पराधीन होकर महान (बड़े) व्यसन (कष्ट) को प्राप्त किया ।
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भावार्थ – मुनि छियालीस दोषरहित शुद्ध आहार करता है, बत्तीस अंतराय टालता है, चौदह मलदोषरहित करता है सो जो मुनि होकर सदोष आहार करे तो ज्ञात होता है कि इसके भाव भी शुद्ध नहीं हैं। उसको यह उपदेश है कि हे मुने ! तूने दोषसहित अशुद्ध आहार किया,
अतिगृद्धता अर दर्प से रे सचित्त भोजन पान कर ।
अति दुःख पाये अनादि से इसका भी जरा विचार कर ।। १०२ ।।