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अष्टपाहुड
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८. संवर, ९. निर्जरा, १०. लोक, ११. बोधिदुर्लभ, १२. धर्म, इनका और पच्चीस भावनाओं क भाना बड़ा उपाय है। इनका बारम्बार चिन्तन करने से कष्ट में परिणाम बिगड़ते नहीं हैं, इसलिए यह उपदेश है । । ९६ ।।
आगे फिर भाव शुद्ध रखने को ज्ञान का अभ्यास करते हैं -
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सव्वविरओ विभावहि णव य पयत्थाइं सत्त तच्चाई | जीवसमासाई मुणी चउदसगुणठाणणामाई ।। ९७ ।। सर्वं विरत: अपि भावय नव पदार्थान् सप्त तत्त्वानि । जीवसमासान् मुने ! चतुर्दशगुणस्थाननामानि ।। ९७ ।। अर्थ - हे मुने ! तू सब परिग्रहादिक से विरक्त हो गया है, महाव्रत सहित है तो भी भाव चौदह जीवसमास, चौदह गुणस्थान, इनके नाम लक्षण
विशुद्धि के लिए नव पदार्थ, सप्त तत्त्व, भेद इत्यादिकों की भावना कर ।
भावार्थ - पदार्थों के स्वरूप का चिन्तन करना भावशुद्धि का बड़ा उपाय है इसलिए यह उपदेश है । इनका नाम स्वरूप अन्य ग्रंथों से जानना ।। ९७ ।।
भावशुद्धि के लिए अन्य उपाय कहते हैं
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णवविहबंभं पयडहि अब्बंभं दसविहं पमोत्तूण |
मेहुणसण्णासत्तो भमिओ सि भवण्णवे भीमे । । ९८ ।। नवविधब्रह्मचर्यं प्रकटय अब्रह्म दशविधं प्रमुच्य । मैथुनसंज्ञासक्तः भ्रमितोऽसि भवार्णवे भीमे ।। ९८ ।।
अर्थ - हे जीव ! तू पहिले दस प्रकार के अब्रह्म हैं उसको छोड़कर नव प्रकार के ब्रह्मचर्य हैं उसको प्रगट कर, भावों में प्रत्यक्ष कर । यह उपदेश इसलिए दिया है कि तू मैथुनसंज्ञा जो कामसेवन की अभिलाषा उसमें आसक्त होकर अशुद्ध भावों से इस भीम ( भयानक) संसाररूपी समुद्र में भ्रमण करता रहा ।
भावार्थ - यह प्राणी मैथुन संज्ञा में आसक्त होकर गृहस्थपना आदिक अनेक उपायों से स्त्रीसेवनादिक अशुद्धभावों से अशुभ कार्यों में प्रवर्तता है, उससे इस भयानक संसारसमुद्र में
भाववाले साधु साधे चतुर्विध आराधना ।
पर भाव विरहित भटकते चिरकाल तक संसार में ।। ९९ ।।