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अष्टपाहुड
अन्यस्मिन् कुमरणमरणं अनेकजन्मान्तरेषु मृत: असि।
भावय सुमरणमरणं जन्ममरणविनाशनं जीवः ।।३२।। अर्थ – हे जीव ! इस संसार में अनेक जन्मान्तरों में अन्य कुमरण मरण जैसे होते हैं, वैसे तू मरा । अब तू जिस मरण से जन्म-मरण का नाश हो जाय इसप्रकार सुमरण भा अर्थात् समाधिमरण की भावना कर।
भावार्थ - मरण संक्षेप से अन्य शास्त्रों में सत्तरह प्रकार के कहे हैं। वे इसप्रकार हैं - १. आवीचिकामरण, २. तद्भवमरण, ३. अवधिमरण, ४. आद्यान्तमरण, ५. बालमरण, ६. पडितमरण, ७. आसन्नमरण, ८. बालपडितमरण, ९. सशल्यमरण, १०. पलायमरण, ११. वशार्त्तमरण, १२. विप्राणसमरण, १३. गृध्रपृष्ठमरण, १४. भक्तप्रत्याख्यानमरण, १५. इंगिनीमरण, १६. प्रायोपगमनमरण और १७. केवलिमरण इसप्रकार सत्तरह हैं।
इनका स्वरूप इसप्रकार है - आयुकर्म का उदय समय-समय में घटता है, वह समय-समय मरण है, वह आवीचिकामरण है।।१।।
वर्तमान पर्याय का अभाव तद्भवमरण है ।।२।।
जैसा मरण वर्तमान पर्याय का हो, वैसा ही अगली पर्याय का होगा वह अवधिमरण है । इसके दो भेद हैं - जैसा प्रकृति, स्थिति, अनुभाग वर्तमान का उदय आया, वैसा ही अगली का उदय आवे वह (१) सर्वावधिमरण है और एकदेश बंध-उदय हो तो (२) देशावधि मरण कहलाता
है।।३।।
वर्तमान पर्याय का स्थिति आदि जैसा उदय था, वैसा अगली का सर्वतो वा देशतो बंधउदय न हो वह आद्यन्तमरण है ।।४।। ___ पाँचवाँ बालमरण है, यह पाँच प्रकार का है - १. अव्यक्तबाल, २. व्यवहारबाल, ३. ज्ञानबाल, ४. दर्शनबाल, ५. चारित्रबाल । जो धर्म, अर्थ, काम इन कामों को न जाने, जिसका शरीर इनके आचरण के लिए समर्थ न हो वह अव्यक्तबाल' है। जो लोक के और शास्त्र के व्यवहार को न जाने तथा बालक अवस्था हो वह व्यवहारबाल' है । वस्तु के यथार्थ ज्ञानरहित 'ज्ञानबाल' है। तत्त्वश्रद्धानरहित मिथ्यादृष्टि दर्शनबाल' है। चारित्ररहित प्राणी 'चारित्रबाल' है। इनका मरना सो बालमरण है। यहाँ प्रधानरूप से दर्शनबाल का ही ग्रहण है, क्योंकि सम्यग्दृष्टि को
तूने अनन्ते जनम में कुमरण किये हे आत्मन् । अब तो समाधिमरण की भा भावना भवनाशनी ।।३२।।