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भावपाहुड
१४७ अर्थ – हे जीव ! तूने सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप रत्नत्रय को नहीं पाया, इसलिए इस दीर्घकाल से-अनादि संसार में पहिले कहे अनुसार भ्रमण किया इसप्रकार जानकर अब तू उस रत्नत्रय का आचरण कर, इसप्रकार जिनेश्वरदेव ने कहा है।
भावार्थ – निश्चय रत्नत्रय पाये बिना यह जीव मिथ्यात्व के उदय से संसार में भ्रमण करता है, इसलिए रत्नत्रय के आचरण का उपदेश है।।३०।। ___ आगे शिष्य पूछता है कि वह रत्नत्रय कैसा है ? उसका समाधान करते हैं कि रत्नत्रय इसप्रकार
अप्पा अप्पम्मि रओ सम्माइट्ठी हवेइ फुडु जीवो। जाणइ तं सण्णाणं चरदिहं चारित्त मग्गो त्ति ।।३१।।
आत्मा आत्मनिरत: सम्यग्दृष्टिः भवति स्फुटं जीवः।
जानाति तत् संज्ञानं चरतीह चारित्रं मार्ग इति ।।३१।। अर्थ – जो आत्मा आत्मा में रत होकर यथार्थरूप का अनुभव कर तद्रूप होकर श्रद्धान करे वह प्रगट सम्यग्दृष्टि होता है, उस आत्मा को जानना सम्यग्ज्ञान है, उस आत्मा में आचरण करके रागद्वेषरूप न परिणमना सम्यक्चारित्र है। इसप्रकार यह निश्चयरत्नत्रय है, मोक्षमार्ग है।
भावार्थ - आत्मा का श्रद्धान ज्ञान आचरण निश्चय रत्नत्रय है और बाह्य में इसका व्यवहार जीव-अजीवादि तत्त्वों का श्रद्धान तथा जानना और परद्रव्य-परभाव का त्याग करना इसप्रकार निश्चय-व्यवहारस्वरूप रत्नत्रय मोक्ष का मार्ग है। वहाँ निश्चय तो प्रधान है, इसके बिना व्यवहार संसारस्वरूप ही है। *व्यवहार है वह निश्चय का साधनस्वरूप है, इसके बिना निश्चय की प्राप्ति नहीं है और निश्चय की प्राप्ति हो जाने के बाद व्यवहार कुछ नहीं है, इसप्रकार जानना चाहिए ।।३१।।
आगे इस संसार में इस जीव ने जन्म-मरण किये हैं, वे कुमरण किये, अब सुमरण का उपदेश करते हैं -
अण्णे कुमरणमरणं अणेयजम्मतराई मरिओ सि।
भावहि सुमरणमरणं जरमरणविणासणं जीव! ।।३२।। १. नोंध - * यहाँ ऐसा नहीं समझना कि प्रथम व्यवहार हो और पश्चात् निश्चय हो, किन्तु भूमिकानुसार प्रारम्भ से ही निश्चयव्यवहार साथ में होता है। निमित्त के बिना अर्थ शास्त्र में जो कहा है, उससे विरुद्ध निमित्त नहीं होता ऐसा समझना ।
निज आतमा को जानना सद्ज्ञान रमना चरण है। निज आतमारत जीव सम्यग्दृष्टि जिनवर कथन है।।३१।।