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बोधपाहुड
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का उपदेश करता है तथा आप उनका घात नहीं करता है यही उनका हित है और सैनी पंचेन्द्रिय जीव हैं, उनकी रक्षा भी करता है, रक्षा का उपदेश भी करता तथा उनको संसार से निवृत्तिरूप मोक्ष प्राप्त करने का उपदेश करते हैं। इसप्रकार मुनिराज को 'चैत्यगृह' कहते हैं ।
भावार्थ – लौकिक जन चैत्यगृह का स्वरूप अन्यथा अनेकप्रकार मानते हैं, उनको सावधान किया है कि जिनसूत्र में छहकाय का हित करनेवाला ज्ञानमयी संयमी मुनि है वह 'चैत्यगृह' है; अन्य को चैत्यगृह कहना मानना व्यवहार है। इसप्रकार चैत्यगृह का स्वरूप कहा ।।९।। (३) आगे जिनप्रतिमा का निरूपण करते हैं।
सपरा जंगमदेहा दंसणणाणेण सुद्धचरणाणं । णिग्गंथवीयराया जिणमग्गे एरिसा पडिमा ।। १० ।।
स्वपरा जंगमदेहा दर्शनज्ञानेन शुद्धचरणानाम् । निर्ग्रन्थवीतरागा जिनमार्गे ईदृशी प्रतिमा ।।१०।।
अर्थ – जिनका चारित्र दर्शन ज्ञान से शुद्ध निर्मल है, उनकी स्व-परा अर्थात् अपनी और पर की चलती हुई देह है वह जिनमार्ग में 'जंगम प्रतिमा है' अथवा स्वपरा अर्थात् आत्मा से 'पर' यानी भिन्न है - ऐसी देह है। वह कैसी है ? जिसका निर्ग्रन्थ स्वरूप है, कुछ भी परिग्रह का श भी नहीं है, ऐसी दिगम्बरमुद्रा है। जिसका वीतराग स्वरूप है, किसी वस्तु से राग-द्वेष-मोह नहीं है, जिनमार्ग में ऐसी 'प्रतिमा' कही है। जिनके दर्शन - ज्ञान निर्मल चारित्र पाया जाता है, इसप्रकार मुनियों की गुरु-शिष्य अपेक्षा अपनी तथा पर की चलती हुई देह निर्ग्रन्थ वीतरागमुद्रा स्वरूप है, वह जिनमार्ग में 'प्रतिमा' है, अन्य कल्पित है और धातु - पाषाण आदि से बनाये हुए दिगम्बरमुद्रा स्वरूप को 'प्रतिमा' कहते हैं, जो व्यवहार है । वह भी बाह्य आकृति तो वैसी ही हो वह व्यवहार में मान्य है ॥ १० ॥
आगे फिर कहते हैं।
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जं चरदि सुद्धचरणं जाणइ णिच्छेइ सुद्धसम्मत्तं । सा होई वंदणीया णिग्गंथा संजदा पडिमा ।। ११ ।।
सद्ज्ञानदर्शनचरण से निर्मल तथा निर्ग्रन्थ मुनि ।
की देह ही जनमार्ग में प्रतिमा कही जिनदेव ने ।। १० ।।
जो देखे जाने रमे निज में ज्ञानदर्शन चरण से । उन ऋषीगण की देह प्रतिमा वंदना के योग्य है ।।११।।