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यः चरति शुद्धचरणं जानाति पश्यति शुद्धसम्यक्त्वम्। सा भवति वंदनीया निर्ग्रन्था संयता प्रतिमा ।। ११ । ।
अष्टपाहुड
अर्थ - जो शुद्ध आचरण का आचरण करते हैं तथा सम्यग्ज्ञान से यथार्थ वस्तु को जानते हैं और सम्यग्दर्शन से अपने स्वरूप को देखते हैं इसप्रकार शुद्धसम्यक्त्व जिनके पाया जाता है ऐसी निर्ग्रन्थ संयमस्वरूप प्रतिमा है, वह वंदन करने योग्य है 1
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भावार्थ - जाननेवाला, देखनेवाला, शुद्धसम्यक्त्व, शुद्धचारित्र स्वरूप निर्ग्रन्थ संयमसहित इसप्रकार मुनि का स्वरूप है वही 'प्रतिमा' है, वही वंदन करने योग्य है; अन्य कल्पित वंदन करने योग्य नहीं है और वैसे ही रूपसदृश धातुपाषाण की प्रतिमा हो वह व्यवहार से वंदने योग्य है।।११।।
आगे फिर कहते हैं -
दंसणअणंतणाणं अनंतवीरिय अनंतसुक्खा य । सासयसुक्ख अदेहा मुक्का कम्मट्ठबंधेहिं ।। १२ ।। णिरुवममचलमखोहा णिम्मिविया 'जंगमेण रूवेण । सिद्धठ्ठाणम्मि ठिया वोसरपडिमा धुवा सिद्धा । । १३ ।। दर्शनानन्तज्ञानं अनन्तवीर्याः अनंतसुखाः च । शाश्वतसुखा अदेहा मुक्ताः कर्माष्टकबंधैः ।। १२ ।। निरुपमा अचला अक्षोभा: निर्मापिता जंगमेन रूपेण । सिद्धस्थाने स्थिता: व्युत्सर्गप्रतिमा ध्रुवाः सिद्धाः ।। १३ ।। अर्थ – जो अनंतदर्शन, अनंतज्ञान, अनंतवीर्य और अनंतसुख सहित हैं; शाश्वत अविनाशी सुखस्वरूप है; अदेह है-कर्म नोकर्मरूप पुद्गलमयी देह जिनके नहीं है; अष्टकर्म के बंधन से रहित है; उपमारहित है, जिसकी उपमा दी जाय ऐसी लोक में वस्तु नहीं है; अचल है, प्रदेशों का चलना जिनके नहीं है; अक्षोभ है, जिनके उपयोग में कुछ क्षोभ नहीं है, निश्चल है; जंगमरूप से १. सं. प्रति में निर्मापिताः 'अजगमेन रूपेण' ऐसी छाया है। अनंतदर्शनज्ञानसुख अर वीर्य से संयुक्त हैं । हैं सदासुखमय देहबिन कर्माष्टकों से युक्त हैं ।।१२।। अनुपम अचल अक्षोभ हैं लोकाग्र में थिर सिद्ध हैं । जिनवर कथित व्युत्सर्ग प्रतिमा तो यही ध्रुव सिद्ध है ।। १३ ।।