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अष्टपाहुड
आश्रय करना, अन्य की स्तुति, प्रशंसा, विनयादिक न करना, यह बोधपाहुड ग्रन्थ करने का आशय है। जिसमें इसप्रकार के निर्ग्रन्थ मुनि रहते हैं, इसप्रकार के क्षेत्र को भी आयतन' कहते हैं, जो व्यवहार है ।।७।। (२) आगे चैत्यगृह का निरूपण करते हैं -
बुद्धं जं बोहंतो अप्पाणं चेदयाई अण्णं च। पंचमहव्वयसुद्धं णाणमयं जाण चेदिहरं ।।८।।
बुद्धं यत् बोधयन् आत्मानं चैत्यानि अन्यत् च।
पंचमहाव्रतशुद्धं ज्ञानमयं ज्ञानीहि चैत्यगृहम् ।।८।। अर्थ - जो मुनि 'बुद्ध' अर्थात् ज्ञानमयी आत्मा को जानता हो, अन्य जीवों को 'चैत्य' अर्थात् चेतनास्वरूप जानता हो, आप ज्ञानमयी हो और पाँच महाव्रतों से शुद्ध हो, निर्मल हो, उस मुनि को हे भव्य ! तू चैत्यगृह' जान ।
भावार्थ - जिसमें अपने को और दूसरे को जाननेवाला ज्ञानी निष्पाप-निर्मल इसप्रकार 'चैत्य' अर्थात् चेतनास्वरूप आत्मा रहता है, वह 'चैत्यगृह' है। इसप्रकार का चैत्यगृह संयमी मुनि है, अन्य पाषाण आदि के मंदिर को चैत्यगृह' कहना व्यवहार है ।।८।। आगे फिर कहते हैं -
चेइयं बंधं मोक्खं दुक्खं सुक्खं च अप्पयं तस्स । चेइहरं जिणमग्गे छक्कायहियंकरं भणियं ।।९।।
चैत्यं बंधं मोक्षं दुःखं सुखं च आत्मकं तस्य ।
चैत्यगृहं जिनमार्गे षड्कायहितंकरं भणितम् ।।९।। अर्थ – जिसके बंध और मोक्ष, सुख और दुःख हो उस आत्मा को चैत्य कहते हैं अर्थात् ये चिह्न जिसके स्वरूप में हो उसे 'चैत्य' कहते हैं, क्योंकि जो चेतनास्वरूप हो उसी के बंध, मोक्ष, सुख, दुःख संभव हैं। इसप्रकार चैत्य का जो गृह हो वह 'चैत्यगृह' है। जिनमार्ग में इसप्रकार चैत्यगृह छहकाय का हित करनेवाला होता है वह इसप्रकार का 'मुनि' है। पाँच स्थावर और त्रस में विकलत्रय और असैनी पंचेन्द्रिय तक केवल रक्षा ही करने योग्य है इसलिए उनकी रक्षा करने
जानते मैं ज्ञानमय परजीव भी चैतन्यमय । सद्ज्ञानमय वे महाव्रतधारी मुनी ही चैत्यगृह ।।८।। मुक्ति-बंधन और सुख-दुःख जानते जो चैत्य वे।। बस इसलिए षट्काय हितकर मुनी ही हैं चैत्यगृह ।।९।।