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________________ ७२ अष्टपाहुड कहते हैं। द्रव्य सामान्यरूप से एक है तो भी विशेषरूप से छह हैं, जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल। __ जीव के दर्शन-ज्ञानमयी चेतना तो गुण है और अचक्षु आदि दर्शन, मति आदिक ज्ञान तथा क्रोध, मान, माया, लोभ आदि व नर, नारकादि विभाव पर्याय है, स्वभावपर्याय अगुरुलघु गुण के द्वारा हानि-वृद्धि का परिणमन है। पुद्गलद्रव्य के स्पर्श, रस, गंध, वर्णरूप मूर्तिकपना तो गुण है और स्पर्श, रस, गन्ध वर्ण का भेदरूप परिणमन तथा अणु से स्कन्धरूप होना तथा शब्द, बन्ध आदिरूप होना इत्यादि पर्याय है। धर्म, अधर्म द्रव्य के गतिहेतुत्व, स्थितिहेतुत्वपना तो गुण है और इस गुण के जीव-पुद्गल के गति-स्थिति के भेदों से भेद होते हैं वे पर्याय हैं तथा अगुरुलघु गुण के द्वारा हानि-वृद्धि का परिणमन होता है जो स्वभाव पर्याय है। आकाश का अवगाहना गण है और जीव-पदगल आदि के निमित्त से प्रदेशभेद कल्पना किये जाते हैं वे पर्याय हैं तथा हानि-वृद्धि का परिणमन वह स्वभाव पर्याय है। कालद्रव्य का वर्तना तो गुण है और जीव और पुद्गल के निमित्त से समय आदि कल्पना सो पर्याय है, इसको व्यवहार काल भी कहते हैं तथा हानि-वृद्धि का परिणमन वह स्वभावपर्याय है इत्यादि। इनका स्वरूप जिन आगम से जानकर देखना, जानना, श्रद्धान करना, इससे चारित्र शुद्ध होता है। बिना ज्ञान, श्रद्धान के आचरण शुद्ध नहीं होता है, इसप्रकार जानना ।।१८।। आगे कहते हैं कि सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र तीन भाव मोहरहित जीव के होते हैं, इनका आचरण करता हुआ शीघ्र मोक्ष पाता है - एए तिण्णि विभावा हवंति जीवस्स मोहरहियस्स। णियगुणमाराहतो अचिरेण य कम्म परिहरइ ।।१९।। एते त्रयोऽपि भावा: भवंति जीवस्य मोहरहितस्य । निजगुणमाराधयन् अचिरेण च कर्म परिहरति ।।१९।। अर्थ - ये पूर्वोक्त सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र तीन भाव हैं, ये निश्चय से मोह अर्थात् मिथ्यात्व रहित जीव के होते हैं, तब यह जीव अपना निजगुण जो शुद्ध दर्शन ज्ञानमयी चेतना की आराधना करता हुआ थोड़े ही काल में कर्म का नाश करता है। भावार्थ - निजगुण के ध्यान से शीघ्र ही केवलज्ञान उत्पन्न करके मोक्ष पाता है ।।१९।। सद्ज्ञानदर्शनचरण होते हैं अमोही जीव को। अर स्वयं की आराधना से हरें बन्धन शीघ्र वे ।।१९।।
SR No.008340
Book TitleAshtapahud
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size888 KB
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