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चारित्रपाहुड
मिच्छादसणमग्गे मलिणे अण्णाणमोहदोसेहिं। वझंति मूढजीवा 'मिच्छत्ताबुद्धिउदएण ।।१७।।
मिथ्यादर्शनमार्गे मलिने अज्ञानमोहदोषैः।
बध्यन्ते मूढजीवा: मिथ्यात्वाबुद्ध्युदयेन ।।१७।। अर्थ - मूढ जीव अज्ञान और मोह अर्थात् मिथ्यात्व के दोषों से मलिन जो मिथ्यादर्शन अर्थात् कुमत के मार्ग में मिथ्यात्व और अबुद्धि अर्थात् अज्ञान के उदय से प्रवृत्ति करते हैं।
भावार्थ - ये मूढजीव मिथ्यात्व और अज्ञान के उदय से मिथ्यामार्ग में प्रवर्तते हैं, इसलिए मिथ्यात्व अज्ञान का नाश करना यह उपदेश है ।।१७।। आगे कहते हैं कि सम्यग्दर्शन-ज्ञान-श्रद्धान से चारित्र के दोष दूर होते हैं -
सम्मइंसण पस्सदि जाणदि णाणेण दव्वपज्जाया। सम्मेण य सद्दहदि य परिहरदि चरित्तजे दोसे ।।१८।। सम्यग्दर्शनेन पश्यति जानाति ज्ञानेन द्रव्यपर्यायान् ।
सम्यक्त्वेन च श्रद्दधाति च परिहरति चारित्रजान्दोषान्।।१८।। अर्थ – यह आत्मा सम्यग्दर्शन से तो सत्तामात्र वस्तु को देखता है, सम्यग्ज्ञान से द्रव्य और पर्यायों को जानता है, सम्यक्त्व से द्रव्य पर्याय स्वरूप सत्तामयी वस्तु का श्रद्धान करता है और इसप्रकार देखना, जानना व श्रद्धान होता है तब चारित्र अर्थात् आचरण में उत्पन्न हुए दोषों को छोड़ता है। ____ भावार्थ - वस्तु का स्वरूप द्रव्य पर्यायात्मक सत्ता स्वरूप है सो जैसा है वैसा देखे-जाने श्रद्धान करे तब आचरण शुद्ध करे सो सर्वज्ञ के आगम से वस्तु का निश्चय करके आचरण करना। वस्तु है वह द्रव्यपर्याय स्वरूप है। द्रव्य का सत्तालक्षण है तथा गुणपर्यायवान् को द्रव्य कहते हैं। पर्याय दो प्रकार की हैं, सहवर्ती और क्रमवर्ती । सहवर्ती को गुण कहते हैं और क्रमवर्ती को पर्याय
१. पाठान्तर - मिच्छत्ता बुद्धिदोसेण ।
मोहमोहित मलिन मिथ्यामार्ग में ये भूल जिय। अज्ञान अर मिथ्यात्व कारण बंधनों को प्राप्त हो ।।१७।। सद्ज्ञानदर्शन जानें देखें द्रव्य अर पर्यायों को। सम्यक् करे श्रद्धान अर जिय तजे चरणज दोष को ।।१८।।