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अष्टपाहुड
आगे अज्ञान मिथ्यात्व कुचारित्र के त्याग का उपदेश करते हैं -
अण्णाणं मिच्छत्तं वजह णाणे विसुद्धसम्मत्ते । अह मोहं सारंभं परिहर धम्मे अहिंसाए।।१५।।
अज्ञानं मिथ्यात्वं वर्जय ज्ञाने विशुद्धसम्यक्त्वे।
अथ मोहं सारंभं परिहर धर्मे अहिंसायाम् ।।१५।। अर्थ - आचार्य कहते हैं कि हे भव्य ! तू ज्ञान के होने पर तो अज्ञान का त्याग कर, विशुद्ध सम्यक्त्व के होने पर मिथ्यात्व का त्याग कर और अहिंसा लक्षण धर्म के होने पर आरंभसहित मोह को छोड़।
भावार्थ – सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र की प्राप्ति होने पर फिर मिथ्यादर्शन 'ज्ञान, चारित्र में मत प्रवर्तो, इसप्रकार उपदेश है ।।१५।। आगे फिर उपदेश करते हैं -
पव्वज संगचाए पयट्ट सुतवे सुसंजमे भावे। होइ सुविसुद्धझाणं णिम्मोहे वीयरायत्ते ।।१६।। प्रव्रज्यायां संगत्यागे प्रवर्तस्व सुतपसि सुसंयमेभावे।
भवति सुविशुद्धध्यानं निर्मोहे वीतरागत्वे ।।१६।। अर्थ – हे भव्य ! तू संग अर्थात् परिग्रह का त्याग जिसमें हो ऐसी दीक्षा ग्रहण कर और भले प्रकार संयमस्वरूप भाव होने पर सम्यक् प्रकार तप में प्रवर्तन कर जिससे तेरे मोहरहित वीतरागपना होने पर निर्मल धर्म शुक्लध्यान हो।
भावार्थ - निर्ग्रन्थ हो दीक्षा लेकर संयमभाव से भले प्रकार तप में प्रवर्तन करे, तब संसार का मोह दूर होकर वीतरागपना हो, फिर निर्मल धर्मध्यान शुक्लध्यान होते हैं, इसप्रकार ध्यान से केवलज्ञान उत्पन्न करके मोक्ष प्राप्त होता है, इसलिए इसप्रकार उपदेश है ।।१६।।
आगे कहते हैं कि यह जीव अज्ञान और मिथ्यात्व के दोष से मिथ्यामार्ग में प्रवर्तन करता है।
तज मूढ़ता अज्ञान हे जिय ज्ञान-दर्शन प्राप्त कर । मद मोह हिंसा त्याग दे जिय अहिंसा को साधकर ।।१५।। सब संग तज ग्रह प्रव्रज्या रम सुतप संयमभाव में। निर्मोह हो तू वीतरागी लीन हो शुधध्यान में ।।१६।।