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चारित्रपाहुड आगे इस सम्यक्त्वाचरण चारित्र के कथन का संकोच करते हैं -
संखिज्जमसंखिजगुणं च संसारिमेरुमत्ता' णं। सम्मत्तमणुचरंता करेंति दुक्खक्खयं धीरा ।।२०।।
संख्येयामसंख्येयगुणां संसारिमेरुमात्रा णं।
सम्यक्त्वमनुचरंत: कुर्वन्ति दुःखक्षयं धीराः ।।२०।। अर्थ – सम्यक्त्व का आचरण करते हुए धीर पुरुष संख्यातगुणी तथा असंख्यातगुणी कर्मों की निर्जरा करते हैं और कर्मों के उदय से हुए संसार के दुःख का नाश करते हैं। कर्म कैसे हैं ? संसारी जीवों के मेरु अर्थात् मर्यादा मात्र हैं और सिद्ध होने के बाद कर्म नहीं हैं।
भावार्थ - इस सम्यक्त्व का आचरण होने पर प्रथम काल में तो गुणश्रेणी निर्जरा होती है, वह असंख्यात के गुणाकाररूप है। पीछे जबतक संयम का आचरण नहीं होता है, तबतक गुणश्रेणी निर्जरा नहीं होती है। वहाँ संख्यात के गुणाकाररूप होती है इसलिए संख्यातगुण और असंख्यातगुण इसप्रकार दोनों वचन कहे। कर्म तो संसार अवस्था है, जबतक है उसमें दु:ख का कारण मोहकर्म है, उसमें मिथ्यात्व कर्म प्रधान है। सम्यक्त्व के होने पर मिथ्यात्व का तो अभाव ही हुआ और चारित्रमोह दुःख का कारण है, सो यह भी जबतक है तबतक उसकी निर्जरा करता है, इसप्रकार अनुक्रम से दुःख का क्षय होता है। संयमाचरण के होने पर सब दु:खों का क्षय होवेगा ही। सम्यक्त्व का माहात्म्य इसप्रकार है कि सम्यक्त्वाचरण होने पर संयमाचरण भी शीघ्र ही होता है, इसलिए सम्यक्त्व को मोक्षमार्ग में प्रधान जानकर इस ही का वर्णन पहिले किया है।।२०।। आगे संयमाचरण चारित्र को कहते हैं -
दुविहं संजमचरणं सायारं तह हवे णिराया। सायारं सग्गंथे परिग्गहा रहिय खलु णिरायारं ।।२१।।
द्विविधं संयमचरणं सागारं तथा भवेत् निरागारं। १. 'संसारिमेरुमतासासारि मेरुमित्ता' इसका सटीक संस्कृत प्रति में सर्षपमेरुमात्रां इसप्रकार है। २. पाठान्तरः - संग्गथं।
सम्यक्त्व के अनुचरण से दुख क्षय करें सब धीरजन । अर करें वे जिय संख्य और असंख्य गुणमय निर्जरा ।।२०।। सागार अर अनगार से यह द्विविध है संयमचरण। सागार हों सग्रन्थ अर निर्ग्रन्थ हों अणगार सब ।।२१।।