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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates तब प्रश्न उठता है कि आखिर ' मैं हूँ कौन ?' यदि एक बार यह प्रश्न हृदय की गहराई से उठे और उसके समाधान की सच्ची जिज्ञासा जगे तो इसका उत्तर मिलना दुर्लभ नहीं । पर यह 'मैं' पर की खोज में स्व को भूल रहा है। कैसी विचित्र बात है कि खोजनेवाला खोजनेवाले को ही भूल रहा है। सारा जगत् पर की संभाल में इतना व्यस्त नजर आता है कि 'मैं कौन हूँ?' यह सोचने समझने की उसे फुर्सत ही नहीं है। 'मैं' शरीर, मन, वाणी और मोह - राग- - द्वेष, यहाँ तक कि क्षणस्थायी परलक्ष्यी बुद्धि से भी एक त्रैकालिक, शुद्ध, अनादि - अनन्त, चैतन्य ज्ञानानन्द स्वभावी ध्रुवतत्त्व हूँ, जिसे आत्मा कहते हैं। जैसे 'मैं बंगाली हूँ, मैं मद्रासी हूँ, और मैं पंजाबी हूँ; इस प्रान्तीयता के घटाटोप में आदमी यह भूल जाता है कि 'मैं भारतीय हूँ' और प्रान्तीयता की सघन अनुभूति से भारतीय राष्ट्रीयता खण्डित होने लगती है; उसी प्रकार ‘मैं मनुष्य हूँ, देव हूँ, पुरुष हूँ, स्त्री हूँ, बालक हूँ, जवान हूँ' आदि में आत्मबुद्धि के बादलों के बीच आत्मा तिरोहित-सा हो जाता है। जैसे आज के राष्ट्रीय नेताओं की पुकार है कि देशप्रेमी बन्धुप्रो ! आप लोग मद्रासी और बंगाली होने के पहिले भारतीय हैं, यह क्यों भूल जाते हैं ? उसी प्रकार मेरा कहना है कि ‘मैं सेठ हूँ, मैं पंडित हूँ, मैं बालक हूँ, मैं वृद्ध हूँ, ' के कोलाहल में ' मैं आत्मा हूँ' को हम क्यों भूल जाते हैं ? जैसे भारत देश की अखण्डता अक्षुण्ण रखने के लिए यह आवश्यक कि प्रत्येक भारतीय में 'मैं भारतीय हूँ' यह अनुभूति प्रबल होनी चाहिये । भारतीय एकता के लिए उक्त अनुभूति ही एकमात्र सच्चा उपाय है । उसी प्रकार 'मैं कौन हूँ' का सही उत्तर पाने के लिए ' मैं आत्मा हूँ' की अनुभूति प्रबल हो, यह अति आवश्यक है । हाँ! तो स्त्री, पुत्र, मकान, रुपया, पैसा यहाँ तक कि शरीर से भी भिन्न मैं तो एक चेतनतत्त्व आत्मा हूँ। आत्मा में उठने वाले मोह - राग-द्वेष भाव भी क्षणस्थायी विकारीभाव होने से आत्मा की सीमा में नही आते तथा परलक्ष्यी ज्ञान का अल्पविकास भी परिपूर्ण ज्ञानस्वभावी आत्मा का अवबोध कराने में समर्थ नहीं है। यहाँ तक कि ज्ञान की पूर्ण विकसित अवस्था, अनादि नहीं होने से, अनादिअनन्त पूर्ण एक ज्ञानस्वभावी आत्मा नहीं हो सकती हैं, क्योंकि आत्मा तो एक द्रव्य है और यह तो आत्मा के ज्ञान गुण की पूर्ण विकसित एक पर्याय मात्र है । — २० Please inform us of any errors on [email protected]
SR No.008327
Book TitleVitrag Vigyana Pathmala 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year1996
Total Pages51
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Education, Spiritual, & Philosophy
File Size342 KB
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