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पाठ ५
| मैं कौन हूँ?
'मैं' शब्द का प्रयोग हम प्रतिदिन कई बार करते हैं, पर गहराई से कभी यह सोचने का यत्न नहीं करते कि 'मैं' का वास्तविक अर्थ क्या हैं ? 'मैं' का असली वाच्यार्थ क्या है ? ' मैं' शब्द किस वस्तु का वाचक है ?
सामान्य तरीके से सोचकर आप कह सकते हैं - इसमें गहराई से सोचने की बात ही क्या है ? क्या हम इतना भी नहीं समझते हैं कि 'मैं' कौन हूँ ? और आप उत्तर भी दे सकते हैं कि 'मैं बालक हूँ या जवान हूँ, मैं पुरुष हूँ या स्त्री हूँ, मैं पण्डित हूँ या सेठ हूँ।' पर मेरा प्रश्न तो यह है कि क्या आप इनके अलावा और कुछ नहीं हैं ? यह सब तो बाहर से दिखने वाली संयोगी पर्यायें मात्र हैं।
मेरा कहना है कि यदि आप बालक हैं तो बालकपन तो एक दिन समाप्त हो जाने वाला है पर आप तो फिर भी रहेंगे, अतः आप बालक नही हो सकते। इसी प्रकार जवान भी नहीं हो सकते। क्योंकि बालकपन और जवानी यह तो शरीर के धर्म हैं तथा 'मैं' शब्द शरीर का वाचक नहीं है। मुझे विश्वास है कि आप भी अपने को शरीर नहीं मानते होंगे।
ऐसे ही आप सेठ तो धन के संयोग से हैं पर धन तो निकल जाने वाला है, तो क्या जब धन नहीं रहेगा तब आप भी न रहेंगे ? तथा पण्डिताई तो शास्त्रज्ञान का नाम है, तो क्या जब आपको शास्त्रज्ञान नहीं था तब आप नहीं थे ? यदि थे, तो मालूम होता है कि आप धन और पंडिताई से भी पृथक् हैं अर्थात् आप सेठ और पंडित भी नहीं हैं।
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