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अध्यापक
देव, शास्त्र, गुरु का सच्चा स्वरूप समझ कर तो गृहीत मिथ्यात्व से बचा जा सकता है और जीवादि प्रयोजनभूत तत्त्वों की सच्ची जानकारीपूर्वक आत्मानुभूति पाकर अगृहीत मिथ्यात्व को दूर किया जा सकता हैं।
प्रश्न
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छात्र - तो समझाइये न इन सब का स्वरूप ? अध्यापक - फिर कभी...
I
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१. जीव दु:खी क्यों है ? क्या दुःख से छुटकारा पाया जा सकता हैं ? यदि हाँ, तो कैसे ?
२. गृहीत और प्रगृहीत मिथ्यात्व में क्या अंतर है? स्पष्ट कीजिये।
३.
क्या रागादि के पोषक शास्त्रों का पढ़ना मात्र गृहीत मिथ्याज्ञान है ?
४.
संयमी की लोक में पूजा होती है, अतः संयम धारण करना चाहिये, क्या यह युक्तिसंगत है, नहीं तो क्यों ?
५.
पं. दौलतरामजी का परिचय दीजिये । उनकी छहढाला में पहली और दूसरी ढाल में किस बात को समझाया गया है ? स्पष्ट कीजिये ।
अनादि से जो मिथ्यात्वादि भाव पाये जाते हैं उन्हें तो अगृहीत मिथ्यात्वादि जानना, क्योंकि वे नवीन ग्रहण नहीं किए हैं। तथा उनके पुष्ट करने के कारणों से विशेष मिथ्यात्वादि भाव होते हैं उन्हें गृहीत मिथ्यात्वादि जानना । मोक्षमार्ग प्रकाशक, पृष्ठ ९५
हे भव्यो ! किंचित्मात्र लोभ से व भय से कुदेवादिक का सेवन करके जिससे अनंतकाल पर्यन्त महादुःख सहना होता है ऐसा मिथ्यात्वभाव करना योग्य नहीं है। जिनधर्म में यह तो प्राम्नाय है कि पहले बड़ा पाप छुड़ाकर फिर छोटा पाप छुड़ाया है; इसलिए इस मिथ्यात्व को सप्तव्यसनादिक से भी बड़ा पाप जानकर पहले छुड़ाया है। इसलिए जो पाप के फल से डरते हैं, अपने आत्मा को दुःखसमुद्र में नहीं डुबाना चाहते, वे जीव इस मिथ्यात्व को अवश्य छोड़ो।
मोक्षमार्ग प्रकाशक, पृष्ठ १९९
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