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छात्र - ऐसे तो गृहीत और अगृहीत मिथ्याज्ञान भी होता होगा? अध्यापक - हाँ! हाँ !! होता है।
जीवादि तत्त्वों के संबंध में जो अनादि से ही अज्ञानता है, वह तो प्रगृहीत मिथ्याज्ञान है तथा जिसमें विपरीत वर्णन द्वारा रागादि का पोषण किया गया हो, उन शास्त्रों को सही मानकर अध्ययन करना ही गृहीत मिथ्याज्ञान है।
छात्र - क्या मिथ्याचारित्र को भी ऐसा ही समझे ? अध्यापक - समझे क्या ! है ही ऐसा।
अज्ञानी जीव की विषयों में प्रवृत्ति ही अगृहीत मिथ्याचारित्र है, तथा प्रशंसादि के लोभ से जो ऊपरी प्राचार पाला जाता है, वह गृहीत मिथ्याचारित्र है। बाहरी क्रियाकाण्ड आत्मा [जीव ], अनात्मा [ अजीव ] के ज्ञान और श्रद्धान से रहित होने के कारण सब असफल है। कहा भी है
जो ख्याति लाभ पूजादि चाह,
धरि करन विविध विध देहदाह। आतम अनात्म के ज्ञानहीन,
___ जे जे करनी तन करन छीन।। १४ ।। छात्र - अज्ञानी जीव की सब क्रियायें अधर्म क्यों हैं ? जो अच्छी हैं, उन्हें तो धर्म कहना चाहिये। अध्यापक - इसी के उत्तर में तो पण्डित दौलतरामजी कहते हैं :रागादि भाव हिंसा समेत ,
दर्वित त्रस थावर मरण खेत। जे क्रिया तिन्हें जानहु कुधर्म,
तिन सरधै जीव लहै अशर्म।। १२ ।। अंतर में उठने वाले राग तथा द्वेषरूप भाव-हिंसा तथा त्रस और स्थावर के घातरूप द्रव्य–हिंसा से सहित जो भी क्रियायें हैं, उन्हें धर्म मानना कुधर्म है। इनमें श्रद्धा रखने से जीव दुःखी होता है।
छात्र - इनसे बचने का उपाय क्या है ?
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