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___ 'मैं' का वाच्यार्थ 'आत्मा' तो अनादि-अनन्त अविनाशी त्रैकालिक तत्त्व है। जब तक उस ज्ञानस्वभावी अविनाशी ध्रुवतत्त्व में अहंबुद्धि ( वही मैं हूँ ऐसी मान्यता) नहीं आती तब तक 'मैं कौन हूँ' यह प्रश्न भी अनुत्तरित ही रहेगा। ___'मैं' के द्वारा जिस आत्मा का कथन किया जाता है, वह आत्मा अन्तरोन्मुखी दृष्टि का विषय है, अनुभवगम्य है, बहिर्लक्ष्यी दौड़धूप से वह प्राप्त नहीं किया जा सकता। वह स्वसंवेद्य तत्त्व है, अत: उसे मानसिक विकल्पों में नहीं बांधा जा सकता है, उसे इन्द्रियों द्वारा भी उपलब्ध नहीं किया जा सकता-क्योंकि इन्द्रियाँ तो मात्र स्पर्श, रस, गंध, वर्ण और शब्द की ग्राहक हैं; अतः वे तो केवल स्पर्श, रस, गंध, वर्ण वाले जड़तत्त्व को ही जानने में निमित्तमात्र हैं। वे इन्द्रियाँ अरस, अरूपी आत्मा को जानने में एक तरह से निमित्त भी नहीं हो सकती हैं।
यह अनुभवगम्य आत्मवस्तु ज्ञान का घनपिंड और आनन्द का कंद है। रूप, रस, गंध, स्पर्श और मोह-राग-द्वेष आदि सर्व पर-भावों से भिन्न, सर्वांग परिपूर्ण शुद्ध है। समस्त पर-भावों से भिन्नता और ज्ञानादिमय भावों से अभिन्नता ही इसकी शुद्धता है। यह एक है, अनन्त गुणों की अखण्डता ही इसकी एकता है। ऐसा यह आत्मा मात्र आत्मा है और कुछ नहीं है, यानी 'मैं' मैं ही हूँ, और कुछ नहीं। 'मैं' मैं ही हूँ और अपने में ही सब कुछ हूँ। पर को देने लायक मुझ में कुछ नहीं हैं,तथा अपने में परिपूर्ण होने से पर के सहयोग की मुझे कोई आवश्यकता नहीं है।
यह आत्मा वाग्विलास और शब्दजाल से परे है, मात्र अनुभूतिगम्य है! आत्मानुभूति को प्राप्त करने का प्रारम्भिक उपाय तत्त्वविचार है, पर वह आत्मानुभूति आत्मतत्त्व सम्बन्धी विकल्प का भी प्रभाव करके प्रकट होने वाली स्थिति है।।
___ 'मैं कौन हूँ' यह जानने की वस्तु है, यह अनुभूति द्वारा प्राप्त होने वाला समाधान (उत्तर) है। यह वाणी द्वारा व्यक्त करने और लेखनी द्वारा लिखने की वस्तु नहीं है। वाणी और लेखनी की इस सन्दर्भ में मात्र इतनी ही उपयोगिता है कि ये उसकी ओर संकेत कर सकती हैं, ये दिशा इंगित कर सकती है; दशा नहीं ला सकती हैं। प्रश्न -
१. 'मैं कौन हूँ' – इस विषय पर अपनी भाषा में एक निबन्ध लिखिये।
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