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उपयोग दर्शनलाल - भाई ज्ञानचन्द ! यह मेरी समझ में नहीं आता कि पिताजी ने अपने ये नाम कहाँ से चुने हैं ?
ज्ञानचन्द - अरे! तुम्हें नहीं मालूम ये दोनों ही नाम धार्मिक दृष्टि से पूर्ण सार्थक हैं। अपनी आत्मा का स्वरूप ही ज्ञान-दर्शनमय है। मोक्षशास्त्र में लिखा है 'उपयोगो लक्षणम्' ।। २।।८।। अर्थात् जीव का लक्षण उपयोग है और ज्ञान-दर्शन के व्यापार अर्थात् कार्य को ही उपयोग कहते हैं।
दर्शनलाल - अरे वाह! ऐसी बात है क्या ? मुझे तो ये नाम बड़े अटपटे लगते हैं।
ज्ञानचन्द - भाई! तुम ठीक कहते हो। जब तक जिस बात को कभी सुना नहीं, कभी सुना नहीं, तब तक ऐसा ही होता है। आचार्य कुंदकुंद स्वामी ने भी लिखा है - इस जीव ने विषय-कषाय की बातें तो खूब सुनी, परिचय किया और अनुभव की हैं, अतः वे सरल लगती हैं; परन्तु आत्मा की बात आज तक न सुनी, न परिचय किया और न आत्मा का अनुभव ही किया है, अतः अटपटी लगेगी ही।
दर्शनलाल - भाई ज्ञानचन्द ! तो आप इस उपयोग को थोड़ा और खुलासा करके समझयो जिससे कम से कम अपने नाम का रहस्य तो जान सकूँ।
ज्ञानचन्द – अच्छी बात है, सुनो।
चैतन्य के साथ संबंध रखने वाले (अनुविधायी) जीव के परिणाम को उपयोग कहते हैं, और उपयोग को ही ज्ञान-दर्शन भी कहते हैं। यह ज्ञानदर्शन सब जीवों में होता है, और जीव के अतिरिक्त अन्य किसी द्रव्य में नहीं होता; इसलिये यह जीव का लक्षण है। इससे ही जीव की पहिचान होती है। इस उपयोग के मुख्य दो भेद हैं:
(१) दर्शनोपयोग (२) ज्ञानोपयोग । दर्शनलाल - दर्शनोपयोग और ज्ञानोपयोग में क्या अतंर है ? यह समझाइये।
ज्ञानचन्द - जिसमें सामान्य का प्रतिभास [ निराकार झलक] हो उसको दर्शनोपयोग कहते हैं, और जिसमें स्व-पर पदार्थों का भिन्नतापूर्वक प्रवभासन हो उस उपयोग को ज्ञानोपयोग कहते हैं।
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