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सुबोधचन्द्र - तुम तो यहीं खड़े-खड़े बातों में ही सब समझ लेना चाहते हो। कल प्रातः मेरे साथ पूजन करने मंदिरजी चलना । वहाँ देखकर पूरी विधि अपने आप समझ में आजावेगी ।
राजू - हाँ ! हाँ!! अवश्य चलूँगा । मुझ मात्र विधि ही नहीं समझना है। मैं भी प्रतिदिन पूजन किया करूँगा ।
सुबोधचन्द्र - तुम्हारा विचार अच्छा है। सांसारिक आकुलतानों व अशुभभाव से कुछ समय बचने के लिये यह भी एक उपाय है।
प्रश्न -
१.
पूजा किसे कहते हैं? पूजा किसकी की जाती है और क्यों ?
२.
पूजा का फल क्या है? ज्ञानी श्रावक भगवान की पूजा क्यों करता है ? ३. प्रासुक द्रव्य किसे कहते हैं ? क्या बिना द्रव्य के भी पूजन हो सकती हैं ?
पूजनादिक कार्यों में उपदेश तो यह था कि- ' सावद्यलेशो बहपुण्यराशौ दोषायनाल** बहुत पुण्यसमूह में पाप का अंश दोष के अर्थ नहीं है। इस छल द्वारा पूजा-प्रभावनादि कार्यों में रात्रि में दीपक से, वे अनन्तकायादिक के संग्रह द्वारा, व प्रयत्नाचार प्रवृत्ति से हिंसादिरूप पाप तो बहुत उत्पन्न करते है और स्तुति, भक्ति आदि शुभ परिणामों में नहीं प्रवर्तते व थोड़े प्रवर्तते हैं सो वहाँ नुकसान बहुत, नफा थोड़ा या कुछ नहीं। ऐसे कार्य करने में तो बुरा ही दिखना होता है।
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* पूज्यं जिनं त्वार्चयतीजनस्य, सावद्यलेशोबहुपुण्यराशौ । दोषायनालं कणिका विषस्य, न दूषिका शीतशिवाम्बुराशौ ।। ५८ ।।
[ बृहत्स्वयंभू स्तोत्र : आचार्य समन्तभद्र ] मोक्षमार्ग प्रकाशक, पृष्ठ १९०
१. अध्यापकों को उक्त पाठ पढ़ाते समय छात्रों को यथासमय मन्दिर ले जाकर पूजन की पूरी विधि प्रयोगात्मक रूप से समझाना चाहिये ।
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