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राजू - यह तो समझा कि देव-शास्त्र-गुरु की पूजा करना चाहिये, पर यह भी तो बताइये कि इससे लाभ क्या हैं ?
सुबोधचन्द्र - ज्ञानी जीव लौकिक लाभ की दृष्टि से भगवान की आराधना नहीं करता हैं, उसे तो सहज भगवान के प्रति भक्ति का भाव आता है। जैसे धन चाहने वाले को धनवान की महिमा आये बिना नहीं रहती, उसी प्रकार वीतरागता के उपासक अर्थात् मुक्ति के पथिक को मुक्तात्माओं के प्रति भक्ति का भाव आता ही है।
राजू - तो क्या! भगवान की भक्ति से लौकिक ( सांसारिक) सुख नहीं मिलता?
सुबोधचन्द्र - ज्ञानी भक्त सांसारिक सुख चाहते ही नहीं हैं, पर शुभ भाव होने से उन्हें पुण्य-बंध अवश्य होता है और पुण्योदय के निमित्त से सांसारिक भोग-सामग्री भी उन्हें प्राप्त होती है। पर उनकी दृष्टि में उसका कोई मूल्य नहीं। पूजा भक्ति का सच्चा लाभ तो विषय-कषाय से बचना है।
राजू - तो पूजा किस प्रकार की जाती है ?
सुबोधचन्द्र - दिन में छने हुए जल से स्नान करके धुले वस्त्र पहिन कर जिन मन्दिर में जिनेन्द्र भगवान के समक्ष विनयपूर्वक खड़े होकर प्रासुक द्रव्य से एकाग्र चित्त होकर पूजन की जाती है।
राजू - प्रासुक द्रव्य माने....... ?
सुबोधचन्द्र - जीव-जन्तुओं से रहित सुधे हुए अचित्त पदार्थ ही पूजन के प्रासुक द्रव्य हैं। जैसे-नहीं उगने योग्य अनाज-चावलादि, सूखे फल-बादाम आदि तथा शुद्ध छना हुअा जलादि।
राजू - बिना द्रव्य के पूजन नहीं हो सकती क्या ?
सुबोधचन्द्र - क्यों नहि ? पूजा में तो भावों की ही प्रधानता है। गृहस्थावस्था में किन्हीं-किन्हीं के बिना द्रव्य के भी पूजन के भाव होते हैं। किन्हीं-किन्हीं के प्रष्ट द्रव्यों से पूजा के भाव होते हैं और किन्हीं-किन्हीं के एक दो द्रव्य से ही पूजन करने से भाव होते हैं।
राजू - यह तो समझा, पर पूजन की पूरी विधि समझ में आई नहीं........।
सादि।
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