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नियमसार
६७
जीवादीदव्वाणं परिवट्टणकारणं हवे कालो। धम्मादिचउण्हं णं सहावगुणपज्जया होति।। ३३ ।।
जीवादिद्रव्याणां परिवर्तनकारणं भवेत्कालः।
धर्मादिचतुर्णां स्वभावगुणपर्याया भवंति।। ३३ ।। कालादिशुद्धामूर्ताचेतनद्रव्याणां स्वभावगुणपर्यायाख्यानमेतत्।
इह हि मुख्यकालद्रव्यं जीवपुद्गलधर्माधर्माकाशानां पर्यायपरिणतिहेतुत्वात् परिवर्तनलिङ्गमित्युक्तम्। अथ धर्माधर्माकाशकालानां स्वजातीयविजातीयबंधसम्बन्धाभावात विभावगुणपर्यायाः न भवंति, अपि तु स्वभावगुणपर्याया भवतीत्यर्थः। ते गुणपर्यायाः पूर्वं प्रतिपादिताः, अत एवात्र संक्षेपतः सूचिता इति।
गाथा ३३ अन्वयार्थ:-[ जीवादिद्रव्याणाम् ] जीवादि द्रव्योंको [ परिवर्तनकारणम् ] परिवर्तनका कारण ( –वर्तनाका निमित) [ कालः भवेत् ] काल है। [धर्मादिचतुर्णां ] धर्मादि चार द्रव्योंको [ स्वभावगुणपर्यायाः ] स्वभावगुणपर्यायें [ भवंति ] होते हैं।
टीका:-यह, कालादि शुद्ध अमूर्त अचेतन द्रव्योंके स्वभावगुणपर्यायोंका कथन है।
मुख्यकालद्रव्य, जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म और आकाशकी ( –पाँच अस्तिकायोंकी) पर्यायपरिणतिका हेतु होनेसे उसका लिंग परिवर्तन है (अर्थात् कालद्रव्यका लक्षण वर्तनाहेतुत्व है ) ऐसा यहाँ कहा है।
___ अब (दूसरी बात यह कि), धर्म, अधर्म, आकाश और कालको स्वजातीय या विजातीय बंधका संबंध न होनेसे उन्हें विभावगुणपर्याय नहीं होती, परंतु स्वभावगुणपर्यायें होती हैं-ऐसा अर्थ है। उन स्वभाव गुणपर्यायोंका पहले प्रतिपादन किया गया है इसलिये यहाँ संक्षेपसे सूचन किया गया है।
[ अब ३३ वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्लोक कहते हैं:]
रे जीव पुद्गल आदिका परिणमनकारण काल है। धर्मादि चार स्वभावगुण पर्यायवंत त्रिकाल है।।३३।।
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