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उक्तं च मार्गप्रकाशे
तथा हि
(अनुष्टुभ् )
'कालाभावे न भावानां परिणामस्तदंतरात् । न द्रव्यं नापि पर्याय: सर्वाभाव: प्रसज्यते ।। "
(अनुष्टुभ् ) वर्तनाहेतुरेषः स्यात् कुम्भकृच्चक्रमेव तत्। पंचानामस्तिकायानां नान्यथा वर्तना भवेत् ।। ४८ ।।
(अनुष्टुभ् ) प्रतीतिगोचराः सर्वे जीवपुद्गलराशयः। धर्माधर्मनभःकालाः सिद्धाः सिद्धान्तपद्धतेः।। ४९ ।।
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और मार्गप्रकाशमें भी ( श्लोक द्वारा ) कहा है कि:
“[ श्लोकार्थ:-] कालके अभावमें, पदार्थोंका परिणमन नहीं होगा; और परिणमन न हो तो, द्रव्य भी न होगा तथा पर्याय भी न होगी; इसप्रकार सर्वके अभावका ( शून्यका ) प्रसंग आयेगा । "
और (३२ वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज दो श्लोक कहते
हैं ) :
[ श्लोकार्थ:-] कुम्हारके चक्रकी भाँति (अर्थात् जिसप्रकार घड़ा बननेमें कुम्हारका चाक निमित्त है उसीप्रकार ), यह परमार्थकाल ( पाँच अस्तिकायोंकी ) वर्तनाका निमित्त है। उसके बिना, पाँच अस्तिकायोंको वर्तना ( - परिणमन ) नहीं हो सकती । ४८ ।
[ श्लोकार्थ :- ] सिद्धांतपद्धतिसे ( शास्त्रपरंपरासे) सिद्ध ऐसे जीवराशि, पुद्गलराशि, धर्म, अधर्म, आकाश और काल सभी प्रतीतिगोचर हैं ( अर्थात् छहों द्रव्योंकी प्रतीति हो सकती है)। ४९ ।
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