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नियमसार
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मुख्यकालस्वरूपाख्यानमेतत्।
जीवराशे: पुद्गलराशेः सकाशादनन्तगुणाः। के ते? समयाः। कालाणव: लोकाकाशप्रदेशेषु पृथक् पृथक् तिष्ठन्ति , स कालः परमार्थ इति।
तथा चोक्तं प्रवचनसारे
“समओ दु अप्पदेसो पदेसमेत्तस्स दव्वजादस्स।
वदिवददो सो वट्टदि पदेसमागासदव्वस्स।।'' अस्यापि समयशब्देन मुख्यकालाणुस्वरूपमुक्तम्।
अन्यच्च
"लोयायासपदेसे एक्कक्के जे ट्ठिया हु एक्कक्का। रयणाणं रासी इव ते कालाणू असंखदव्वाणि।।"
टीका:-यह, मुख्य कालके स्वरूपका कथन है।
जीवराशिसे और पुद्गलराशिसे अनंतगुने हैं। कौन ? समय। कालाणु लोकाकाशके प्रदेशोंमें पृथक् पृथक् स्थित हैं, वह काल परमार्थ है।
उसीप्रकार ( श्रीमद्भगवत्कुंदकुंदाचार्यदेवप्रणीत) श्री प्रवचनसारमें (१३८ वी गाथा द्वारा) कहा है कि:
“[ गाथार्थ:- ] काल तो अप्रदेशी है। प्रदेशमात्र पुद्गल-परमाणु आकाशद्रव्यके प्रदेशको मंद गतिसे लाँघता हो तब वह वर्तता है अर्थात् निमित्तभूतरूपसे परिणमित होता
इसमें (इस प्रवचनसारकी गाथामें ) भी 'समय' शब्दसे मुख्यकालाणुका स्वरूप कहा
इला
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और अन्यत्र (आचार्यवर श्रीनेमिचंद्रसिद्धांतिदेवविरचित बृहद्रव्यसंग्रहमें २२ वी गाथा द्वारा) कहा है कि:
“[ गाथार्थ:-] लोकाकाशके एक-एक प्रदेशमें जो एक-एक कालाणु रत्नोंकी राशिकी भाँति वास्तवमें स्थित हैं, वे कालाणु असंख्य द्रव्य हैं।"
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