________________
Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates
अजीव अधिकार
तथा चोक्तं पंचास्तिकायसमये
"समओ णिमिसो कट्ठा कला य णाली तदो दिवारत्ती। मासोदुअयणसंवच्छरो त्ति कालो परायत्तो।।''
तथा हि
( मालिनी) समयनिमिषकाष्ठा सत्कलानाडिकाद्याद् दिवसरजनिभेदाज्जायते काल एषः। न च भवति फलं मे तेन कालेन किंचिद्
निजनिरुपमतत्त्वं शुद्धमेकं विहाय।। ४७ ।। जीवादु पोग्गलादो णंतगुणा चावि संपदा समया। लोयायासे संति य परमट्ठो सो हवे कालो।।३२ ।।
जीवात् पुद्गलतोऽनंतगुणाश्चापि संप्रति समयाः। लोकाकाशे संति च परमार्थः स भवेत्कालः।। ३२ ।।
__ इसीप्रकार (श्रीमद्भगवत्कुंदकुंदाचार्यदेवप्रणीत) श्री पंचास्तिकायसमयमें ( २५ वीं गाथा द्वारा ) कहा है कि :
“[ गाथार्थ:- ] समय, निमिष, काष्ठा, कला, घड़ी, दिनरात, मास, ऋतु, अयन और वर्ष-इसप्रकार पराश्रित काल (-जिसमें परकी अपेक्षा आती है ऐसा व्यवहारकाल)
और ( ३१ वी गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्लोक कहते हैं ):
[ श्लोकार्थ:-] समय, निमिष , काष्ठा, कला, घड़ी, दिनरात आदि भेदोंसे यह काल ( व्यवहारकाल) उत्पन्न होता है; परंतु शुद्ध एक निज निरुपम तत्त्वको छोड़कर, उस कालसे मुझे कोई फल नहीं है। ४७।
गाथा ३२ अन्वयार्थ:-[ संप्रति] अब, [जीवात् ] जीवसे [ पुद्गलतः च अपि] तथा पुद्गलसे भी [अनंतगुणाः ] अनंतगुने [ समयाः] समय हैं; [ च ] और [ लोकाकाशे संति] जो ( कालाणु) लोकाकाशमें हैं, [ सः ] वह [ परमार्थः कालः भवेत् ] परमार्थ काल है।
रे जीव पुद्गलसे समय संख्या अनंतगुणा कही। कालाणु लोकाकाश स्थित जो, काल निश्चय है वही।। ३२।।
Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com