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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates नियमसार ६३ व्यवहारकालस्वरूपविविधविकल्पकथनमिदम्। एकस्मिन्नभःप्रदेशे यः परमाणुस्तिष्ठति तमन्यः परमाणुर्मन्दचलनालंधयति स समयो व्यवहारकालः। तादृशैरसंख्यातसमयैः निमिषः, अथवा नयनपुटघटनायत्तो निमेषः। निमेषाष्टकैः काष्ठा। षोडशभिः काष्ठाभिः कला। द्वात्रिंशत्कलाभिर्घटिका। षष्टिनालिकमहोरात्रम्। त्रिंशदहोरात्रैर्मासः। द्वाभ्याम् मासाभ्याम् ऋतुः। ऋतुभिस्त्रिभिरयनम्। अयनद्वयेन संवत्सरः। इत्यावल्यादिव्यवहारकालक्रमः। इत्थं समयावलिभेदेन द्विधा भवति, अतीतानागतवर्तमानभेदात् त्रिधा वा। अतीतकाल-प्रपंचोऽयमुच्यते-अतीतसिद्धानां सिद्धपर्यायप्रादुर्भावसमयात् पुरागतो ह्यावल्यादि-व्यवहारकाल: स कालस्यैषां संसारावस्थायां यानि संस्थानानि गतानि तैः सदृशत्वादनन्तः। अनागतकालोऽप्यनागतसिद्धानामनागतशरीराणि यानि तैः सदृश इत्यामुक्ते: मुक्ते: सकाशादित्यर्थः। टीका:-यह, व्यवहारकालके स्वरूपका और उसके विविध भेदोका कथन है। एक आकाशप्रदेशमें जो परमाणु स्थित हो उसे दूसरा परमाणु मंद गतिसे लाँघे उतना काल वह समयरूप व्यवहारकाल है। ऐसे असंख्य समयोंका निमिष होता है, अथवा आँख मिचे उतना काल वह निमिष है। आठ निमिषकी काष्ठा होती है। सोलह काष्ठाकी कला , बत्तीस कलाकी घड़ी, साठ घड़ीका अहोरात्र, तीस अहोरात्रका मास, दो मासकी ऋतु, तीन ऋतुका अयन और दो अयनका वर्ष होता है। ऐसा आवलि आदि व्यवहारकालका क्रम है। इसप्रकार व्यवहारकाल समय और आवलिके भेदसे दो प्रकारका है अथवा अतीत, अनागत और वर्तमानके भेदसे तीन प्रकारका है। यह (निम्नोक्तानुसार), अतीत कालका विस्तार कहा जाता है: अतीत सिद्धोंका सिद्धपर्यायके प्रादुर्भावसमयसे पूर्व बीता हुआ जो आवलि आदि व्यवहारकाल वह, उन्हें संसार-दशामें जितने संस्थान बीत गये उनके जितना होनेसे अनंत है। (अनागत सिद्धोंको मक्ति होने तकका) अनागत काल भी-अनागत सिद्धोंके जो मक्तिपर्यंत अनागत शरीर उनके बराबर है। ऐसा (इस गाथाका ) अर्थ है। १। प्रादुर्भाव = प्रगट होना; उत्पन्न होना वह। २। सिद्धभगवानको अनंत शरीर बीत गये हैं; उन शरीरोंकी अपेक्षा संख्यातगुनी आवलियाँ बीत गई हैं। इसलिये अतीत शरीर भी अनंत हैं और अतीत काल भी अनंत है। अतीत शरीरोंकी अपेक्षा अतीत आवलियाँ संख्यातगुनी होनेपर भी दोनों अनंत होनेसे दोनोंको अनंतपनेकी अपेक्षासे समान कहा है। Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008273
Book TitleNiyamsara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorHimmatlal Jethalal Shah
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages400
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size2 MB
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