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अजीव अधिकार
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( मालिनी) इति विरचितमुचैर्द्रव्यषट्कस्य भास्वद् विवरणमतिरम्यं भव्यकर्णामृतं यत्। तदिह जिनमुनीनां दत्तचित्तप्रमोदं भवतु भवविमुक्त्यै सर्वदा भव्यजन्तोः ।। ५० ।।
एदे छद्दव्वाणि य कालं मोत्तूण अत्थिकाय त्ति। णिद्दिट्ठा जिणसमये काया हु बहुप्पदेसत्तं ।। ३४ ।।
एतानि षड्द्रव्याणि च कालं मुक्त्वास्तिकाया इति। निर्दिष्टा जिनसमये कायाः खलु बहुप्रदेशत्वम्।।३४ ।।
अत्र कालद्रव्यमन्तरेण पूर्वोक्तद्रव्याण्येव पंचास्तिकाया भवंतीत्युक्तम्।
इह हि द्वितीयादिप्रदेशरहितः कालः, 'समओ अप्पदेसो' इति वचनात्।
[ श्लोकार्थ:-] इसप्रकार भव्योंकें कर्णोको अमृत ऐसा जो छह द्रव्योंका अति रम्य दैदीप्यमान ( –स्पष्ट) विवरण विस्तारसे किया गया, वह जिन मुनियोंके चित्तको प्रमोद देनेवाला षद्रव्यविवरण भव्य जीवोंको सर्वदा भवविमुक्तिका कारण हो। ५०।
गाथा ३४ अन्वयार्थ:-[ कालं मुक्त्वा] काल छोड़कर [ एतानि षड्द्रव्याणि च] इन छह द्रव्योंको (अर्थात् शेष पाँच द्रव्योंको) [जिनसमये] जिनसमयमें (जिनदर्शनमें ) [अस्तिकायाः इति] 'अस्तिकाय' [ निर्दिष्टाः ] कहे गये हैं। [ बहुप्रदेशत्वम् ] बहुप्रदेशीपना [ खलु कायाः ] वह कायत्व है।
टीका:-इस गाथामें कालद्रव्यके अतिरिक्त पूर्वोक्त द्रव्य ही पंचास्तिकाय हैं ऐसा कहा
यहाँ (इस विश्वमें) काल द्वितीयादि प्रदेश रहित (अर्थात् एकसे अधिक प्रदेश रहित) है, क्योंकि “ समओ अप्पदेसो (काल अप्रदेशी है)" ऐसा ( शास्त्रका ) वचन है।
बिन काल ये जिनधर्म वर्णित पाँच अस्तिकाय हैं। अरु वस्तुका वह बहु प्रदेशीपन नियम से काय है।। ३४।।
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