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अजीव अधिकार
तथा हि
( अनुष्टुभ् ) स्कन्धेस्तैः षट्प्रकारैः किं चतुर्भिरणुभिर्मम। आत्मानमक्षयं शुद्धं भावयामि मुहुर्मुहुः।। ३९ ।।
अत्तादि अत्तमझं अत्तंतं णेव इंदियग्गेज्झं। अविभागी जं दव्वं परमाणू तं वियाणाहि।। २६ ।।
आत्माद्यात्ममध्यमात्मान्तं नैवेन्द्रियैाह्यम्। अविभागि यट्रव्यं परमाणुं तद् विजानीहि।। २६ ।।
परमाणुविशेषोक्तिरियम्।
यथा जीवानां नित्यानित्यनिगोदादिसिद्धक्षेत्रपर्यन्तस्थितानां सहजपरमपारिणामिकभावविवक्षासमाश्रयेण सहजनिश्चयनयेन स्वस्वरूपादप्रच्यवनत्वमुक्तम्, तथा परमाणुद्रव्याणां पंचमभावेन
और ( २५ वी गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्लोकद्वारा पुद्गलकी उपेक्षा करके शुद्ध आत्माकी भावना करते हैं ) :
[ श्लोकार्थ:-] उन छह प्रकारके स्कंधों या चार प्रकारके अणुओंके साथ मुझे क्या है ? मैं तो अक्षय शुद्ध आत्माको पुनः पुनः भाता हूँ। ३९ ।
गाथा २६ अन्वयार्थ:-[ आत्मादि] स्वयं ही जिसका आदि है, [ आत्ममध्यम् ] स्वयं ही जिसका मध्य है और [ आत्मान्तम् ] स्वयं ही जिसका अंत है ( अर्थात् जिसके आदिमें, मध्यमें और अंतमें परमाणुका निज स्वरूप ही है), [ न एव इन्द्रियैः ग्राह्यम् ] जो इन्द्रियोंसे ग्राह्य ( --जानने में अने योग्य ) नहीं है और [ यद् अविभागि] जो अविभागी है, [तत् ] वह [ परमाणुं द्रव्यं ] परमाणुद्रव्य [ विजानीहि ] जान।
टीका:-यह, परमाणुका विशेष कथन है।
जिसप्रकार सहज परम पारिणामिकभावकी विवक्षाका आश्रय करनेवाले सहज निश्चयनयकी अपेक्षासे नित्य और अनित्य निगोदसे लेकर सिद्धक्षेत्र पर्यंत विद्यमान जीवोंका निज स्वरूपसे अच्युतपना कहा गया है, उसी प्रकार पंचमभाव की अपेक्षा से परमाणुद्रव्य
का
जो आदिमें भी आप है, मध्यान्तमें भी आप ही। अविभाग, इन्द्रिय ग्राह्य नहिं, परमाणु सत् जानो वही ।। २६ ।।
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