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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates नियमसार परमस्वभावत्वादात्मपरिणतेरात्मैवादिः, मध्यो हि आत्मपरिणतेरात्मैव , अंतोपि स्वस्यात्मैव परमाणु :। अतः न चेन्द्रियज्ञानगोचरत्वाद् अनिलानलादिभिरविनश्वरत्वादविभागी हे शिष्य स परमाणुरिति त्वं तं जानीहि। (अनुष्टुभ् ) अप्यात्मनि स्थितिं बुवा पुद्गलस्य जडात्मनः।। सिद्धास्ते किं न तिष्ठंति स्वस्वरूपे चिदात्मनि।। ४० ।। एयरसरूवगंधं दोफासं तं हवे सहावगुणं। विहावगुणमिदि भणिदं जिणसमये सव्वपयडत्तं ।। २७ ।। एकरसरूपगंधः द्विस्पर्शः स भवेत्स्वभावगुणः। विभावगुण इति भणितो जिनसमये सर्वप्रकटत्वम्।। २७ ।। परमस्वभाव होनेसे परमाणु स्वयं ही अपनी परिणतिका आदि है, स्वयं ही अपनी परिणतिका मध्य है और स्वयं ही अपना अंत भी है (अर्थात् आदिमें भी स्वयं ही, मध्यमें भी स्वयं ही और अंतमें भी परमाणु स्वयं ही है, कभी निज स्वरूपसे च्युत नहीं है)। जो ऐसा होनेसे , इन्द्रियज्ञानगोचर न होनेसे और पवन, अग्नि इत्यादि द्वारा नाशको प्राप्त न होनेसे , अविभागी है उसे , हे शिष्य ! तू परमाणु जान। [ अब २६ वी गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्लोक कहते हैं: ] [श्लोकार्थ:-] जड़ात्मक पुद्गलकी स्थिति स्वयंमें (-पुद्गलमें ही) जानकर ( अर्थात् जड़स्वरूप पुद्गल पुद्गलके निज स्वरूपमें ही रहते हैं ऐसा जानकर), वे सिद्धभगवंत अपने चैतन्यात्मक स्वरूपमें क्यों नहीं रहेंगे? (अवश्य रहेंगे) । ४०। गाथा २७ अन्वयार्थ:-[ एकरसरूपगंधः ] जो एक रसवाला, एक वर्णवाला, एक गंधवाला और [ द्विस्पर्शः] दो स्पर्शवाला हो, [ सः] वह [ स्वभावगुणः ] स्वभावगुणवाला [भवेत् ] है; [विभावगुणः ] विभावगुणवालेको [जिनसमये] 'जिनसमयमें [ सर्वप्रकटत्वम् ] सर्व प्रगट ( सर्व इन्द्रियोंसे ग्राह्य) [इति भणितः ] कहा है। १। समय = सिद्धांत; शास्त्र; शासन; दर्शन; मत। दो स्पर्श, इक रस गंध वर्ण, स्वभावगुणमय है वही। सर्वाक्षगम्य विभावगुणमयको प्रगट जिनवर कही।। २७।। Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008273
Book TitleNiyamsara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorHimmatlal Jethalal Shah
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages400
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size2 MB
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