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जीव अधिकार
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प्रयोजनमस्येति पर्यायार्थिकः। न खलु. एकनयायत्तोपदेशो ग्राह्यः, किन्तु तदुभयनयायत्तोपदेशः। सत्ताग्राहकशुद्धद्रव्यार्थिकनयबलेन पूर्वोक्तव्यञ्जनपर्यायेभ्य: सकाशान्मुक्तामुक्तसमस्तजीवराशयः सर्वथा व्यतिरिक्ता एव। कुतः, ? “सव्वे सुद्धा हु सुद्धणया'' इति वचनात्। विभावव्यंजनपर्यायार्थिकनयबलेन ते सर्वे जीवास्संयुक्ता भवन्ति। किंच सिद्धानामर्थपर्यायैः सह परिणतिः, न पुनर्यंजनपर्यायैः सह परिणतिरिति। कुतः ? सदा निरंजनत्वात्। सिद्धानां सदा निरंजनत्वे सति तर्हि द्रव्यार्थिकपर्यायार्थिकनयाभ्याम् द्वाभ्याम् संयुक्ताः सर्वे जीवा इति सूत्रार्थो व्यर्थः। निगमो विकल्पः, तत्र भवो नैगमः। स च नैगमनयस्तावत् त्रिविधः, भूतनैगमः वर्तमाननैगम: भाविनैगमश्चेति। अत्र भूतनैगमनयापेक्षया भगवतां सिद्धानामपि व्यंजनपर्यायत्वमशुद्धत्वं च संभवति। पूर्वकाले ते भगवन्तः संसारिण इति व्यवहारात्। किं बहुना, सर्वे जीवा नयद्वयबलेन शुद्धाशुद्धा इत्यर्थः। तथा चोक्तं श्रीमदमृतचन्द्रसूरिभिःप्रयोजन है वह पर्यायार्थिक है। एक नयका अवलंबन लेता हुआ उपदेश ग्रहण करने योग्य नहीं है किन्तु उन दोनों नयों का अवलंबन लेता हुआ उपदेश ग्रहण करने योग्य है। सत्ताग्राहक (-द्रव्यकी सत्ताको ही ग्रहण करनेवाले) शुद्ध द्रव्यार्थिक नयके बलसे पूर्वोक्त व्यंजनपर्यायोंसे मुक्त तथा अमुक्त (-सिद्ध तथा संसारी समस्त जीवराशि सर्वथा व्यतिरिक्त ही है। क्यों ? “ सव्वे सुद्धा हु सुद्धणया (शुद्धनयसे सर्व जीव वास्तवमें शुद्ध हैं)" ऐसा (शास्त्रका) वचन होनेसे। विभावव्यंजनपर्यायार्थिक नयके बलसे वे सर्व जीव (पूर्वोक्त व्यंजनपर्यायोंसे) संयुक्त है। विशेष इतना कि-सिद्ध जीवोंके अर्थपर्यायों सहित परिणति है, परंतु व्यंजनपर्यायों सहित परिणति नहीं है। क्यों ? सिद्ध जीव सदा निरंजन होनेसे। (प्रश्न:- ) यदि सिद्ध जीव सदा निरंजन हैं तो सर्व जीव द्रव्यार्थिक तथा पर्यायार्थिक दोनों नयोंसे संयुक्त है (अर्थात् सर्व जीवोंको दोनों नय लागू होते हैं) ऐसा सूत्रार्थ (गाथाका अर्थ) व्यर्थ सिद्ध होता है ( उत्तर:-व्यर्थ सिद्ध नहीं होता क्योंकि-) निगम अर्थात् विकल्प; उसमें हो वह नैगम। वह नैगमनय तीन प्रकारका है: भूत नैगम, वर्तमान नैगम और भावी नैगम। यहाँ भूत नैगमनयकी अपेक्षासे भगवंत सिद्धोंको भी व्यंजनपर्यायवानपना और अशुद्धपना संभवित होता है, क्योंकि पूर्व कालमें वे भगवंत संसारी थे ऐसा व्यवहार है। बहु कथनसे क्या ? सर्व जीव दो नयोंके बल से शुद्ध तथा अशुद्ध हैं ऐसा अर्थ है।
इसीप्रकार (आचार्य देव ) श्रीमद् अमृतचंद्रसूरिने (श्री समयसारकी आत्मख्याति नामकी टीकामें चौथा श्लोक द्वारा ) कहा है कि:
* जो भूतकालकी पर्यायको वर्तमानवत् संकल्पित करे (अथवा कहे), भविष्यकालकी
पर्यायको वर्तमानवत् संकल्पित करे ( अथवा कहे), अथवा किञ्चित निष्पन्नतायुक्त और किञ्चिंत अनिष्पन्नतायुक्त वर्तमान पर्यायको सर्वनिष्पन्नवत् संकल्पित करे ( अथवा कहे), उस ज्ञानको ( अथवा वचनको) नैगमनय कहते हैं।
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