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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates नियमसार (मालिनी) "उभयनयविरोधध्वंसिनि स्यात्पदांके जिनवचसि रमन्ते ये स्वयं वान्तमोहाः। सपदि समयसारं ते परं ज्योतिरुच्चैरनवमनयपक्षाक्षुण्णमीक्षन्त एव।।'' तथा हि (मालिनी) अथ नययुगयुक्तिं लंघयन्तो न सन्तः परमजिनपदाब्जद्वन्द्वमत्तद्विरेफाः। सपदि समयसारं ते ध्रुवं प्राप्नुवन्ति क्षितिषु परमतोक्तेः किं फलं सज्जुनानाम्।। ३६ ।। इति सुकविजनपयोजमित्रपंचेन्द्रियप्रसरवर्जितगात्रमात्रपरिग्रहश्रीपद्मप्रभमलधारिदेव -विरचितायां नियमसारव्याख्यायां तात्पर्यवृत्तौ जीवाधिकारः प्रथमश्रुतस्कन्धः।। " [ श्लोकार्थ:-] दोनों नयोंके विरोधको नष्ट करनेवाले, स्यात्पदसे अंक्ति जिनवचनमें जो पुरुष रमते हैं, वे स्वयमेव मोहको वमन करके, अनूतन (-अनादि) और कुनयके पक्षसे खंडित न होने वाली ऐसी उत्तम परमज्योतिको-समयसारको-शीघ्र देखते ही और (इस जीव अधिकारकी अन्तिम गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्री पद्मप्रभमलधारिदेव श्लोक कहते हैं ) : [ श्लोकार्थ:-] जो दो नयोंके संबंधका उल्लंघन न करते हुए परमजिनके पादपंकजयुगलमें मत्त हुए भ्रमर समान हैं ऐसे जो सत्पुरुष वे शीघ्र समयसारको अवश्य प्राप्त करते हैं। पृथ्वीपर पर मतके कथनसे सज्जनोंको क्या फल है ( अर्थात् जगतमें जैनेतर दर्शनोंके मिथ्या कथनोंसे सज्जनोंको क्या लाभ है ) ? । ३६ । इसप्रकारे, सुकविजनरूपी कमलोंके लिये जो सूर्य समान हैं और पांच इंद्रियोंके फेलाव रहित देहमात्र जिनको परिग्रह था ऐसे श्री पद्मप्रभमलधारिदेव द्वारा रचित नियमसारकी तात्पर्यवृत्ति नामक टीकामें (अर्थात् श्रीमद्भगवत्कुंदकुंदाचार्यदेवप्रणीत श्री नियमसार परमागमकी निग्रंथ मुनिराज श्री पद्मप्रभमलधारिदेवविरचित तात्पर्यवृत्ति नामक टीकामें ) जीव अधिकार नामका प्रथम श्रुतस्कंध समाप्त हुआ। Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008273
Book TitleNiyamsara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorHimmatlal Jethalal Shah
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages400
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size2 MB
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