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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates नियमसार ३८ किञ्चिच्छुभमिश्रमायापरिणामेन तिर्यक्कायजो व्यवहारेणात्मा, तस्याकारस्तिर्यक्पर्यायः। केवलेन शुभकर्मणा व्यवहारेणात्मा देवः, तस्याकारो देवपर्यायश्चेति। अस्य पर्यायस्य प्रपञ्चो ह्यागमान्तरे दृष्टव्य इति। (मालिनी) अपि च बहुविभावे सत्ययं शुद्धदृष्टि: सहजपरमतत्त्वाभ्यासनिष्णातबुद्धिः। सपदि समयसारान्नान्यदस्तीति मत्त्वा स भवति परमश्रीकामिनीकामरूपः।। २७ ।। माणुस्सा दुवियप्पा कम्ममहीभोगभूमिसंजादा। सत्तविहा णेरइया णादव्वा पुढविभेदेण।। १६ ।। मानुषा द्विविकल्पाः कर्ममहीभोगभूमिसंजाताः। सप्तविधा नारका ज्ञातव्याः पृथ्वीभेदेन।। १६ ।। किंचित्शुभमिश्रित मायापरिणामसे आत्मा व्यवहारसे तिर्यंचकायमें जन्मता है, उसका आकार वह तिर्यंचपर्याय है; और केवल शुभ कर्मसे व्यवहारसे आत्मा देव होता है, उसका आकार वह देवपर्याय है। वह व्यंजनपर्याय है। इस पर्यायका विस्तार अन्य आगममें देख लेना चाहिये। ( अब, १५ वी गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्लोक कहते हैं :) [ श्लोकार्थ:-] बहु विभाव होनेपर भी, सहज परम तत्त्वके अभ्यासमें जिसकी बुद्धि प्रवीण है ऐसा यह शुद्धदृष्टिवाला पुरुष, “ समयसारसे अन्य कुछ नहीं है" ऐसा मानकर, शीघ्र परमश्रीरूपी सुंदरीका वल्लभ होता है। २७ । गाथा १६-१७ अन्वयार्थ:-[ मानुषाः द्विविकल्पाः ] मनुष्योंके दो भेद हैं: [ कर्ममहीभोगभूमिसंजाताः ] कर्मभूमिमें जन्मे हुए और भोगभूमिमें जन्मे हुए; [ पृथ्वीभेदेन ] पृथ्वीके भेदसे [ नारकाः ] नारक [ सप्तविधाः ज्ञातव्याः ] सात प्रकारके जानना; हैं कर्म-भूमिज , भोग-भूमिज मनुज की दो जातियाँ । अरु सप्त पृथ्वीभेदसे हैं सप्त नारक राशियाँ ।। १६ ।। Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008273
Book TitleNiyamsara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorHimmatlal Jethalal Shah
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages400
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size2 MB
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