________________
Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates जीव अधिकार
३७
साद्यनिधनामूर्तातीन्द्रियस्वभावशुद्धसद्भूतव्यवहारेण केवलज्ञानकेवलदर्शनकेवलसुखकेवल
शक्तियुक्तफलरूपानंतचतुष्टयेन सार्धं परमोत्कृष्टक्षायिकभावस्य शुद्धपरिणतिरेव कार्यशुद्धपर्यायश्च। अथवा पूर्वसूत्रोपात्तसूक्ष्मऋजुसूत्रनयाभिप्रायेण षड्द्रव्यसाधारणाः सूक्ष्मास्ते हि अर्थपर्यायाः शुद्धा इति बोद्धव्याः । उक्तः समासतः शुद्धपर्यायविकल्पः।
इदानीं व्यंजनपर्याय उच्यते । व्यज्यते प्रकटीक्रियते अनेनेति व्यञ्जनपर्यायः । कुतः, ? लोचनगोचरत्वात् पटादिवत् । अथवा सादिसनिधनमूर्तविजातीयंविभावस्वभावत्वात्, दृश्यमानविनाशस्वरूपत्वात्।
व्यंजनपर्यायश्च-पर्यायिनमात्मानमन्तरेण पर्यायस्वभावात् शुभाशुभमिश्रपरिणामेनात्मा व्यवहारेण नरो जातः, तस्य नराकारो नरपर्यायः । केवलेनाशुभकर्मणा व्यवहारेणात्मा नारको जातः, तस्य नारकाकारो नारकपर्यायः ।
सादि-अनंत, अमूर्त, अतीन्द्रियस्वभाववाले शुद्धसद्भूतव्यवहारसे, केवलज्ञानकेवलदर्शन-केवलसुख - केवलशक्तियुक्त फलरूप अनंतचतुष्टयके साथकी ( - अनंत - चतुष्टयके साथ तन्मयरूपसे रहनेवाली) जो परमोत्कृष्ट क्षायिकभावकी शुद्धपरिणति वही * कार्यशुद्धपर्याय है। अथवा, पूर्व सूत्रमें कहे हुए सूक्ष्म ऋजुसूत्रनयके अभिप्रायसे, छह द्रव्योंको साधारण और सूक्ष्म ऐसी वे अर्थपर्यायें शुद्ध जानना ( अर्थात् वे अर्थपर्यायें ही शुद्धपर्यायें हैं।)।
( इसप्रकार ) शुद्धपर्यायके भेद संक्षेपमें कहे।
अब व्यंजनपर्याय कही जाती है: जिससे व्यक्त हो- प्रगट हो वह व्यंजनपर्याय है। किस कारण? पटादिकी ( वस्त्रादिकी) भाँति चक्षुगोचर होनेसे ( प्रगट होती है); अथवा, सादि-सांत मूर्त विजातीयविभावस्वभाववाली होनेसे, दिखाकर नष्ट होनेवाले स्वरूपवाली होनेसे (प्रगट होती है ) ।
पर्यायी आत्माके ज्ञान बिना आत्मा पर्यायस्वभाववाला होता है; इसलिये शुभाशुभरूप मिश्र परिणामसे आत्मा व्यवहारसे मनुष्य होता है, उसका मनुष्याकार वह मनुष्यपर्याय है; केवल अशुभ कर्मसे व्यवहारसे आत्मा नारक होता है, उसका नारक - आकार वह नारकपर्याय है;
* सहजज्ञानादि स्वभाव - अनंतचतुष्टययुक्त कारणशुद्धपर्याय से केवलज्ञानादि अनंतचतुष्टय– युक्त कार्यशुद्धपर्याय प्रगट होती है। पूजनीय परमपारिणामिकभावपरिणति वह कारणशुद्धपर्याय है और शुद्ध क्षायिकभावपरिणति वह कार्यशुद्धपर्याय है।
Please inform us of any errors on rajesh@Atma Dharma.com