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नियमसार
३६
णरणारयतिरियसुरा पज्जाया ते विहावमिदि भणिदा। कम्मोपाधिविवज्जियपज्जाया ते सहावमिदि भणिदा।। १५ ।।
नरनारकतिर्यक्सुराः पर्यायास्ते विभावा इति भणिताः। कर्मोपाधिविवर्जितपर्यायास्ते स्वभावा इति भणिताः।। १५ ।।
स्वभावविभावपर्यायसंक्षेपोक्तिरियम्।
तत्र स्वभावविभावपर्यायाणां मध्ये स्वभाव-पर्यायस्तावत् द्विप्रकारेणोच्यते। कारणशुद्धपर्यायः कार्यशुद्धपर्यायश्चेति।
इह हि सहजशुद्ध निश्चयेन अनाद्यनिधनामूर्तातीन्द्रियस्वभावशुद्धसहजज्ञानसहजदर्शनसहजचारित्रसहजपरम-वीतराग सुखात्मकशुद्धान्तस्तत्त्वस्वरूपस्व -भावानन्तचतुष्टयस्वरूपेण सहांचितपंचमभाव-परिणतिरेव-कारणशुद्धपर्याय इत्यर्थः।
गाथा १५ अन्वयार्थ:-[ नरनारकतिर्यक्सुराः पर्यायाः ] मनुष्य, नारक, तिर्यंच और देवरूप पर्यायें [ते] वे [विभावाः] विभावपर्यायें [इति भणिताः] कही गई हैं; [ कर्मोपाधिविवर्जितपर्यायाः ] कर्मोपाधि रहित पर्यायें [ ते ] वे [ स्वभावाः ] स्वभावपर्यायें [इति भणिताः] कही गई हैं।
टीका:---यह, स्वभावपर्यायों तथा विभावपर्यायोंका संक्षेप कथन है।
वहाँ, स्वभावपर्यायों और विभावपर्यायोंके बीच प्रथम स्वभावपर्याय दो प्रकारसे कही जाती है : कारणशुद्धपर्याय और कार्यशुद्धपर्याय।
यहाँ सहज शुद्ध निश्चयसे , अनादि-अनंत, अमूर्त, अतींद्रियस्वभाववाले और शुद्ध ऐसे सहजज्ञान-सहजदर्शन-सहजचारित्र-सहजपरमवीतरागसुखात्मक शुद्ध-अंतःतत्त्वस्वरूप जो स्वभाव-अनंतचतुष्टयका स्वरूप उसके साथकी जो पूजित पंचमभावपरिणति (-उसके साथ तन्मयरूपसे रहनेवाली जो पूज्य ऐसी पारिणामिकभावकी परिणति) वही कारणशुद्धपर्याय है, ऐसा अर्थ है।
तिर्यंच, नारकि, देव, नर पर्याय हैं वैभाविकी। पर्याय कर्मोपाधि वर्जित हैं कही स्वभाविकी ।।१५।।
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