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जीव अधिकार
३५
( मालिनी) अथ सति परभावे शुद्धमात्मानमेकं सहजगुणमणीनामाकरं पूर्णबोधम्। भजति निशितबुद्धिर्यः पुमान् शुद्धदृष्टि: स भवति परमश्रीकामिनीकामरूपः।। २४ ।।
( मालिनी) इति परगुणपर्यायेषु सत्सूत्तमानां हृदयसरसिजाते राजते कारणात्मा। सपदि समयसारं तं परं ब्रह्मरूपं भज भजसि निजोत्थं भव्यशार्दूल स त्वम्।। २५ ।।
(पृथ्वी ) क्वचिल्लसति सद्गुणैः क्वचिदशुद्धरूपैर्गुणैः क्वचित्सहजपर्ययैः क्वचिदशुद्धपर्यायकैः। सनाथमपि जीवतत्त्वमनाथं समस्तैरिदं
नमामि परिभावयामि सकलार्थसिद्धयै सदा।। २६ ।। ( अब १४ वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज तीन श्लोक कहते
हैं:)
[ श्लोकार्थ:-] परभाव होनेपर भी, सहजगुणमणिकी खानरूप तथा पूर्णज्ञानवाले शुद्ध आत्माको एकको तो तीक्ष्णबुद्धिवाला शुद्धदृष्टि पुरुष भजता है, वह पुरुष परमश्रीरूपी कामिनीका ( मुक्तिसुंदरीका) वल्लभ बनता है। २४ ।
[ श्लोकार्थ:-] इसप्रकार पर गुणपर्यायें होने पर भी, उत्तम पुरुषोंके हृदयकमलमें कारण-आत्मा विराजमान है। अपनेसे उत्पन्न ऐसे उस परमब्रह्मरूप समयसारको -कि जिसे तू भज रहा है उसे-, हे भव्यशार्दूल (भव्योत्तम), तू शीघ्र भज; तू वह है। २५।
[ श्लोकार्थ:-] जीवतत्त्व क्वचित् सद्गुणों सहित विलसता है-दिखाई देता है, क्वचित् अशुद्धरूप गुणों सहित विलसता है, क्वचित् सहज पर्यायों सहित विलसता है और क्वचित् अशुद्ध पर्यायों सहित विलसता है। इन सबसे सहित होनेपर जो इन सबसे रहित है ऐसे इस जीवतत्त्वको मैं सकल अर्थकी सिद्धिके लिये सदा नमता हूँ, भाता हूँ। २६।
* विलसना = दिखाई देना; दिखना; झलकना; आविर्भूत होना; प्रगट होना।
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