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________________ २८ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates नियमसार मतिश्रुतावधिज्ञानानि मिथ्यादृष्टिं परिप्राप्य कुमतिकुश्रुतविभङ्गज्ञानानीति नामान्तराणि प्रपेदिरे। अत्र सहजज्ञानं शुद्धान्तस्तत्त्वपरमतत्त्वव्यापकत्वात् स्वरूपप्रत्यक्षम्। केवलज्ञानं सकलप्रत्यक्षम्। 'रूपिष्ववधेः' इतिवचनादवधिज्ञानं विकलप्रत्यक्षम्। तदनन्तभागवस्त्वंशग्राहकत्वान्मनःपर्ययज्ञानं च विकलप्रत्यक्षम्। मतिश्रुतज्ञानद्वितयमपि परमार्थतः परोक्षं व्यवहारतः प्रत्यक्षं च भवति। किं च उक्तेषु ज्ञानेषु साक्षान्मोक्षमूलमेकं निजपरमतत्त्वनिष्ठसहजज्ञानमेव। अपि च पारिणामिकभावस्वभावेन भव्यस्य परमस्वभावत्वात् सहजज्ञानादपरमुपादेयं न समस्ति। अनेन सहजचिद्विलासरूपेण सदा सहजपरमवीतरागशामृतेन अप्रतिहतनिरावरणपरमचिच्छक्तिरूपेण सदान्तर्मुखे स्वस्वरूपाविचलस्थितिरूपसहजपरमचारित्रेण त्रिकालेष्वव्युच्छिन्नतया सदा मिथ्यादर्शन हो वहाँ मतिज्ञान, श्रुतज्ञान और अवधिज्ञान “कुमतिज्ञान", “कुश्रुतज्ञान" और “ विभंगज्ञान”-ऐसे नामांतरोंको (अन्य नामोंको) प्राप्त होते हैं। यहाँ (ऊपर कहे हुए ज्ञानोंमें) सहजज्ञान, शुद्ध अंतःतत्त्वरूप परमतत्त्वमें व्यापक होनेसे , स्वरूपप्रत्यक्ष है। केवलज्ञान सकलप्रत्यक्ष (संपूर्ण प्रत्यक्ष) है। “रूपिष्ववधेः (अवधिज्ञानका विषय-संबंध रूपी द्रव्योंमें है)" (आगमका) वचन होनेसे अवधिज्ञान विकलप्रत्यक्ष (एकदेशप्रत्यक्ष) है। उसके अनंतवें भागमें वस्तुके अंशका ग्राहक ( -ज्ञाता) होनेसे मनःपर्ययज्ञान भी विकलप्रत्यक्ष है। मतिज्ञान और श्रुतज्ञान दोनों परमार्थसे परोक्ष हैं और व्यवहारसे प्रत्यक्ष हैं। और विशेष यह है कि--उक्त (ऊपर कहे हुए) ज्ञानोंमें साक्षात् मोक्षका मूल निजपरमतत्त्वमें स्थित ऐसा एक सहजज्ञान ही है; तथा सहजज्ञान (उसके) पारिणामिकभावरूप स्वभावके कारण भव्यका परमस्वभाव होनेसे, सहजज्ञानके अतिरिक्त अन्य कुछ उपादेय नहीं है। इस सहजचिद्विलासरूप (१) सदा सहज परम वीतराग सुखामृत, (२) अप्रतिहत निरावरण परम चित्शक्तिका रूप, (३) सदा अंतर्मुख ऐसा स्वस्वरूपमें अविचल स्थितिरूप सहज परम चारित्र, और (४) त्रिकाल अविच्छिन्न (अटूट) होनेसे सदा १। स्वरूपप्रत्यक्ष = स्वरूपसे प्रत्यक्ष; स्वरूप-अपेक्षासे प्रत्यक्ष; स्वभावसे प्रत्यक्ष। Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008273
Book TitleNiyamsara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorHimmatlal Jethalal Shah
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages400
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size2 MB
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