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जीव अधिकार
२७
कारणज्ञानमपि तादृशं भवति। कुतः, निजपरमात्मस्थितसहजदर्शनसहजचारित्रसहजसुखसहजपरमचिच्छक्तिनिजकारण-समयसारस्वरूपाणि च युगपत् परिच्छेत्तुं समर्थत्वात् तथाविधमेव। इति शुद्धज्ञानस्वरूपमुक्तम्।
इदानीं शुद्धाशुद्धज्ञानस्वरूपभेदस्त्वयमुच्यते। अनेकविकल्पसनाथं मतिज्ञानम् उपलिब्धभावनोपयोगाच अवग्रहादिभेदाच बहुबहुविधादिभेदाद्वा। लब्धिभावनाभेदाच्छ्रुतज्ञानं द्विविधम्। देशसर्वपरमभेदादवधिज्ञानं त्रिविधम्। ऋजुविपुलमतिविकल्पान्मनःपर्ययज्ञानं च द्विविधम्। परमभावस्थितस्य सम्यग्दृष्टेरेतत्संज्ञानचतुष्कं भवति।
कारणज्ञान भी वैसा ही है। काहेसे ? निज परमात्मामें विद्यमान सहजदर्शन, सहजचारित्र, सहजसुख और सहजपरमचित्शक्तिरूप निज कारणसमयसारके स्वरूपोंको युगपद् जाननेमें समर्थ होनेसे वैसा ही है। इसप्रकार शुद्ध ज्ञानका स्वरूप कहा।
अब यह (निम्नानुसार), शुद्धाशुद्ध ज्ञानका स्वरूप और भेद कहे जाते हैं : 'उपलब्धि, भावना और उपयोगसे तथा अवगहादि भेदसे अथवा बहु, बहुविध आदि भेदसे मतिज्ञान अनेक भेदवाला है। लब्धि और भावनाके भेदसे श्रुतज्ञान दो प्रकारका है। देश, सर्व और परमके भेदसे (अर्थात् देशावधि, सर्वावधि तथा परमावधि ऐसे तीन भेदोंके कारण) अवधिज्ञान तीन प्रकार का है। ऋजुमति और विपुलमतिके भेदके कारण मनःपर्ययज्ञान दो प्रकारका है। परमभावमें स्थित सम्यग्दृष्टिको यह चार सम्यग्ज्ञान होते हैं।
१। मतिज्ञान तीन प्रकारका है: उपलब्धि, भावना और उपयोग। मतिज्ञानावरणका क्षयोपशम जिसमें निमित्त है ऐसी अर्थग्रहणशक्ति (-पदार्थको जानने की शक्ति) सो उपलब्धि है; जाने हुए पदार्थ के प्रति पुन:-पुन: चिंतन सो भावना है; “ यह काला है”, “यह पीला है" इत्यादिरूप अर्थग्रहणव्यापार ( –पदार्थको जाननेका व्यापार ) सो उपयोग है।
२। मतिज्ञान चार भेदवाला है: अवग्रह, ईहा ( –विचारणा), अवाय ( –निर्णय ) और धारणा।
[ विशेषके लिये “ मोक्षशास्त्र ( सटीक)” देखें।]
३। मतिज्ञान बार भेदवाला है: बहु, एक, बहुविध , एकविध , क्षिप्र, अक्षिप्र, अनिःसृत, ___निःसृत , अनुक्त , उक्त, ध्रुव तथा अधुव। [विशेषके लिये “ मोक्षशास्त्र ( सटीक)” देखें।] ४। सुमतिज्ञान और सुश्रुतज्ञान सर्व सम्यग्दृष्टि जीवोंको होते हैं। सुअवधिज्ञान किन्हीं-किन्हीं
सम्यग्दृष्टि जीवोंको होता है। मनःपर्ययज्ञान किन्हीं-किन्हीं मुनिवरोंकोविशिष्टसंयमधरोंको--होता है।
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