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जीव अधिकार
२९
संन्निहितपरमचिद्पश्रद्धानेन अनेन स्वभावानंतचतुष्टयेन सनाथम् अनाथमुक्तिसुन्दरीनाथम् आत्मानं भावयेत्। इत्यनेनोपन्यासेन संसारखततिमूललवित्रेण ब्रह्मोपदेशः कृत इति।
(मालिनी) इति निगदितभेदज्ञानमासाद्य भव्यः परिहरतु समस्तं घोरसंसारमूलम्। सुकृतमसुकृतं वा दुःखमुच्चैः सुखं वा तत उपरि समां शाश्वतं शं प्रयाति।। १८ ।।
(अनुष्टुभ् ) परिग्रहाग्रहं मुक्त्वा कृत्वोपेक्षां च विग्रहे।
निळगप्रायचिन्मात्रविग्रहं भावयेद् बुधः।। १९ ।। निकट ऐसी परम चैतन्यरूपकी श्रद्धा--इस स्वभाव--अनन्तचतुष्टयसे जो सनाथ ( सहित) है ऐसे आत्माको--अनाथ मुक्तिसुन्दरीके नाथको--भाना चाहिये (अर्थात् सहजज्ञानविलासरूप से स्वभावअनन्तचतुष्टययुक्त आत्माको भाना चाहिये--अनुभवन करना चाहिये)।
इसप्रकार संसाररूपी लताका मूल छेदनेके लिये हँसियारूप इस उपन्याससे ब्रह्मोपदेश किया।
[ अब, इन दो गाथाओंकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज पाँच श्लोक कहते हैं :]
[श्लोकार्थ:--] इसप्रकार कहे गये भेदज्ञानको पाकर भव्य जीव घोर संसारके मूलरूप समस्त सुकृत या दुष्कृतको, सुख या दुःखको अत्यन्त परिहरो। उससे ऊपर ( अर्थात् उसे पार कर लेने पर), जीव समग ( परिपूर्ण ) शाश्वत सुखको प्राप्त करता है। १८।
[ श्लोकार्थ:-] परिगहका ग्रहण छोड़कर तथा शरीरके प्रति उपेक्षा करके बुध पुरुषको अव्यग्रतासे (निराकुलतासे) भरा हुआ चैतन्य मात्र जिसका शरीर है उसे (आत्माको) भाना चाहिये। १९ । १- उपन्यास = कथन; सूचन; लेख; प्रारम्भिक कथन; प्रस्तावना। २- सुकृत या दुष्कृत = शुभ या अशुभ।
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