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नियमसार
अत्रोपयोगलक्षणमुक्तम्।
आत्मनश्चैतन्यानुवर्ती परिणामः स उपयोगः । अयं धर्मः । जीवो धर्मी। अनयोः सम्बन्धः प्रदीपप्रकाशवत्। ज्ञानदर्शनविकल्पेनासौ द्विविधः । अत्र ज्ञानोपयोगोऽपि स्वभावविभावभेदाद् द्विविधो भवति । इह हि स्वभावज्ञानम् अमूर्तम् अव्याबाधम् अतीन्द्रियम् अविनश्वरम्। तच्च कार्यकारणरूपेण द्विविधं भवति । कार्यं तावत् सकलविमलकेवलज्ञानम्। तस्य कारणं परमपारिणामिकभावस्थितत्रिकालनिरुपाधिरूपं सहजज्ञानं स्यात् । केवलं विभावरूपाणि ज्ञानानि त्रीणि कुमतिकुश्रुतविभङ्गभाञ्जि भवन्ति । एतेषाम् उपयोगभेदानां ज्ञानानां भेदो वक्ष्यमाणसूत्रयोर्द्वयोर्बोद्धव्य इति।
टीका :- यहाँ ( इस गाथामें ) उपयोगका लक्षण कहा है 1
आत्माका चैतन्य-अनुवर्ती ( चैतन्यका अनुसरण वर्तनेवाला) परिणाम सो उपयोग है। उपयोग धर्म है, जीव धर्मी है। दीपक और प्रकाश जैसा उनका संबंध है। ज्ञान और दर्शनके भेदसे यह उपयोग दो प्रकारका है ( अर्थात् उपयोगके दो प्रकार हैं : ज्ञानोपयोग और दर्शनोपयोग)। इसमें ज्ञानोपयोग भी स्वभाव और विभावके भेदके कारण प्रकारका है (अर्थात् ज्ञानोपयोगके भी दो प्रकार हैं : स्वभावज्ञानोपयोग और विभावज्ञानोपयोग ) । उनमें स्वभावज्ञान अमूर्त, अव्याबाध, अतीन्द्रिय और अविनाशी है; वह भी कार्य और कारणरूपसे दो प्रकारका है (अर्थात् स्वभावज्ञानके भी दो प्रकार हैं : कार्यस्वभावज्ञान और कारणस्वभावज्ञान)। कार्य तो सकलविमल ( सर्वथा निर्मल) केवलज्ञान है और उसका कारण परम पारिणामिकभावसे स्थित त्रिकालनिरुपाधिरूप सहजज्ञान है । केवल विभावरूप ज्ञान तीन हैं : कुमति, कुश्रुत और विभङ्ग ।
इस उपयोगके भेदरूप ज्ञानके भेद, अब कहे जानेवाले दो सूत्रों द्वारा ( ११ ने १२ वीं गाथा द्वारा ) जानना ।
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