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शुद्धोपयोग अधिकार
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परमात्मस्वरूपश्रद्धानपरिज्ञानाचरणात्मकभेदोपचारकल्पनानिरपेक्षस्वस्थरत्नत्रयपरायणा: सन्तः शब्दब्रह्मफलस्य शाश्वतसुखस्य भोक्तारो भवन्तीति।
(मालिनी) सुकविजनपयोजानन्दिमित्रेण शस्तं ललितपदनिकायैर्निर्मितं शास्त्रमेतत्। निजमनसि विधत्ते यो विशुद्धात्मकांक्षी स भवति परमश्रीकामिनीकामरूपः।। ३०८ ।।
(अनुष्टुभ् ) पद्मप्रभाभिधानोद्धसिन्धुनाथसमुद्रवा। उपन्यासोर्मिमालेयं स्थेयाच्चेतसि सा सताम्।। ३०९ ।।
(अनुष्टुभ् ) अस्मिन् लक्षणशास्त्रस्य विरुद्धं पदमस्ति चेत्। लुप्त्वा तत्कवयो भद्राः कुर्वन्तु पदमुत्तमम्।। ३१० ।।
परमात्माके स्वरूपके श्रद्धान-ज्ञान-आचरणात्मक भेदोपचार-कल्पनासे निरपेक्ष ऐसे 'स्वस्थ रत्नत्रयमें परायण वर्तते हुए, शब्दब्रह्मके फलरूप शाश्वत सुखके भोक्ता होते हैं।
[अब इस नियमसार-परमागमकी तात्पर्यवृत्ति नामक टीकाकी पूर्णाहुति करते हुए टीकाकार मुनिराज श्री पद्मप्रभमलधारिदेव चार श्लोक कहते हैं:]
[ श्लोकार्थ:-] सुकविजनरूपी कमलोंको आनंद देनेवाले (-विकसित करने वाले) सूर्यने ललित पदसमूहों द्वारा रचे हुए इस उत्तम शास्त्रको जो विशुद्ध आत्माका आकांक्षी जीव निज मनमें धारण करता है, वह परमश्रीरूपी कामिनीका वल्लभ होता है। ३०८।
[ श्लोकार्थ:-] पद्मप्रभ नामके उत्तम समुद्रसे उत्पन्न होनेवाली जो यह ऊर्मिमाला-कथनी (टीका), वह सत्पुरुषोंके चित्तमें स्थित रहो। ३०९ ।
[ श्लोकार्थ:-] इसमें यदि कोई पद लक्षणशास्त्रसे विरुद्ध हो तो भद्र कवि उसका लोप करके उत्तम पद करना। ३१०।
१। स्वस्थ = निजात्मस्थित। (निजात्मस्थित शुद्धरत्नत्रय भेदोपचार-कल्पनासे निरपेक्ष है।)
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